________________ तृतीय वर्ग ] ने भी ऐसे यावत् पुत्रों को जन्म दिया है। अतः मैं अरिहंत अरिष्टनेमि भगवान् की सेवा में जाऊं, वंदन-नमस्कार करू, और वंदन-नमस्कार करके इस प्रकार के उक्तिवैपरीत्य के विषय में पूछू। ऐसा सोचकर तुम ने कौटम्बिक पुरुषों को बुलाया और बुलाकर कहा-“शीघ्रगामी यानप्रवर-- [समान रूपवाले, समान खुर और पूछ वाले, समान सींग वाले, स्वर्ण-निर्मित कण्ठ के आभूषणों से युक्त, उत्तम गति वाले, चाँदी की घंटियों से युक्त, स्वर्णमय नासारज्जु से बंधे हुए, नील-कमल के सिरपेच वाले दो उत्तम यूवा बैलों से युक्त, अनेक प्रकार की मणिमय घण्टियों के समूह से व्याप्त उत्तम काष्ठमय धोंसरा (जुआ) और जोत की दो उत्तम डोरियों से युक्त, प्रवर (श्रेष्ठ) लक्षण युक्त धार्मिक श्रेष्ठ यान (रथ) तैयार करके यहाँ उपस्थित करो और आज्ञा का पालन कर निवेदन करो अर्थात् कार्य सम्पूर्ण हो जाने की सूचना दो।" देवकी देवी की इस प्रकार की आज्ञा होने पर वे सेवक पुरुष प्रसन्न यावत् आनन्दित हृदय वाले हुए और मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोले-'आपकी प्राज्ञा हमें मान्य है' ऐसा कहकर विनयपूर्वक आज्ञा को स्वीकार किया और प्राज्ञानुसार शीघ्र चलने वाले दो बैलों से युक्त यावत् धार्मिक श्रेष्ठ रथ को शीघ्र उपस्थित किया। __ तब देवानन्दा ब्राह्मणी की तरह देवकी देवी ने भी [अंतःपुर में स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक (मषि-तिलक) किया। फिर पैरों में पहनने के सुदर नपुर, मणियुक्त मेखला (कन्दोरा) हार, उत्तम कंकण अंगूठियाँ, विचित्र मणिमय एकावलि (एक लड़ा) हार, कण्ठ-सूत्र, ग्रेवेयक (वक्षस्थल पर रहा हुआ गले का लम्बा हार), कटिसूत्र और विचित्र मणि तथा रत्नों के प्राभूषण, इन सब से शरीर को सुशोभित करके, उत्तम चीनांशुक (वस्त्र) पहनकर शरीर पर सुकुमाल रेशमी वस्त्र प्रोढकर, सब ऋतुओं के सुगन्धित फूलों से अपने केशों को गूंथकर, कपाल पर चन्दन लगा कर, उत्तम आभूषणों से शरीर को अलंकृत कर, कालागुरु के धूप से सुगन्धित होकर, लक्ष्मी के समान वेष वाली यावत् अल्प भार और बहमूल्य वाले प्राभरणों से शरीर को अलंकृत करके, बहुत सी कुब्जा दासियों, चिलात देश की दासियों, यावत् अनेक देश विदेशों से आकर एकत्रित हुई दासियों, अपने देश के वेष धारण करने वाली, इंगित-पाकृति द्वारा चिन्तित और इष्ट अर्थ को जाननेवाली कुशल और विनयसम्पन्न दासियों के परिवार सहित तथा स्वदेश की दासियों, खोजा पुरुष, वृद्ध कंचुकी भीर मान्य पुरुषों के समूह के साथ वह देवकी देवी अपने अन्तःपुर से निकली और जहाँ बाहर की उपस्थानशाला थी और जहाँ धार्मिक श्रेष्ठ रथ खडा था वहाँ आई और उस धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर चढी / (जहाँ अरिष्टनेमि भगवान् थे वहाँ आई, आकर, तीर्थकर के अतिशयों को देखकर) धार्मिक रथ से नीचे उतरी और अपनी दासियों आदि परिवार से परिवृत होकर भगवान् अरिष्टनेमि के पास पांच प्रकार के अभिगमों से युक्त होकर जाने लगी। वे अभिगम इस प्रकार हैं—(१) सचित्त द्रव्यों का त्याग करना, (2) अचित्त द्रव्यों को त्याग नहीं करना, (3) विनय से शरीर को अवनत करना (नीचे की ओर झुका देना), (4) भगवान् के दृष्टिगोचर होते ही दोनों हाथ जोड़ना और (5) मन को एकाग्न करना। इन पाँच अभिगमों के साथ देवकी देवी जहाँ अरिष्टनेमि भगवान् थे वहाँ पाई और भगवान् को तीन बार पादक्षिण-प्रदक्षिणा करके वन्दन नमस्कार किया / वन्दननमस्कार करके शुश्रूषा करती हुई, विनयपूर्वक हाथ जोड़कर उपासना करने लगी। तदनन्तर अरिहंत अरिष्टनेमि देवकी को सम्बोधित कर इस प्रकार बोले-'हे देवकी ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org