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________________ 38] [अन्तकृद्दशा लहुकरणप्पवरं जाव [जुत्त-जोइय-सम-खुर-वालिहाण-समालिहियसिंगेहि, जंबूणयामयकलावजुत्त-परिविसिझेहि, रययामयघंटा-सुत्तरज्जुयपवर कंचणणत्थपग्गहोग्गहियएहि, णीलुप्पलकयामेलएहि, पवरगोणजुवाणएहि जाणामणि-रयण-घंटियाजाल-परिगयं, सुजायजुगजोत्तरज्जुयजुग-पसत्थसुविरचियणिम्मियं, पवरलक्खणोववेयं धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह, उबट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / तए णं ते कोडुबिय-पुरिसा....."एवं वुत्ता समाणा हट्ठ जाव हियया, करयल एवं ....."तहत्ति प्राणाए विणएणं वयणं जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुत्त जाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव] उवट्ठति / जहा देवाणंदा जाव [तए णं सा देवई देवो अंतो अंतेउरंसि व्हाया, कयबलिकम्मा, कयकोउय-मंगलपायच्छित्ता, किंच वरपायपत्तणेउर-मणिमेहला हार-रचिय उचियकडग-खुड्डागएगावलो-कंठसुत्त-उरत्थगेवेज्ज-सोणिसुत्तग-णाणामणि-रयण-भूसणविराइयंगी, चोणंसुयवत्थपवरपरिहिया, दुगुल्लसुकुमालउत्तरिज्जा, सव्वोउयसुरभिकुसुमवरियसिरिया, वरचंदणवंदिया, वराभरणभूसियंगो, कालागरुधूवधूक्यिा, सिरिसमाणवेसा, जाव अप्पमहाघाभरणालंकियसरीरा, बहूहि खुज्जाहि, चिलाइयाहिं, गाणादेस-विदेसपरिमंडियाहि, सदेसणेवत्यहियवेसाहि, इंगिय-चितिय-पत्थियवियाणियाहि, कुसलाहि, विणीयाहि, चेडियाचकवालवरिसधर-थेरकंचुइज्ज-महत्तरगवंदपरिक्खित्ता अंतेउरानो णिग्गच्छइ, णिग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जाव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा। तए णं सा देवई देवी धम्मियानो जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता बहि खुज्जाहि जाव महत्तरगवंदपरिक्खित्ता भगवं अरिठ्ठनेमि पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तं जहा सचित्ताणं दवाणं विउसरणयाए, अचित्ताणं दव्वाणं अविमोयणयाए, विणयोणयाए गायलठ्ठीए, चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, मणस्स एगत्तोभावकरणेणं; जेणेव भगवं अरिट्ठनेमी तेणेव उवागच्छद; उवागच्छित्ता भगवं परिठ्ठनेमि तिक्खुत्तो प्रायाहिण-पयाहिणं करेइ, करित्ता बंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता..."सुस्सूसमाणी, णमंसमाणी, अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा जाव] पज्जुवासइ / तए णं अरहा अरिट्ठनेमी देवई देवि एवं क्यासी-'से नणं तब देवई ! इमे छ अणगारे पासित्ता अयमेयारूवे अज्झस्थिए चितिए पथिए मणोगए संकप्पे समुप्पण्णे एवं खलु अहं पोलासपुरे नयरे अइमुत्तेणं जाव' तं णिग्गच्छसि, णिग्गच्छित्ता जेणेव मम अंतियं तेणेव हव्वमागया, से नणं देवई ! अछे समठे?' | 'हंता अस्थि / ' इस प्रकार की बात कहकर उन श्रमणों के लौट जाने के पश्चात् देवकी देवी को इस प्रकार का आध्यात्मिक, चिन्तित, प्रार्थित, मनोगत और संकल्पित विचार उत्पन्न हुआ कि "पोलासपुर नगर में अतिमुक्त कुमार नामक श्रमण ने मुझे बचपन में इस प्रकार कहा था-हे देवानुप्रिये देवकी ! तुम आठ पुत्रों को जन्म दोगी, जो परस्पर एक दूसरे से पूर्णतः समान [प्राकार, त्वचा और अवस्था वाले, नील कमल, महिष के शृग के अन्तर्वर्ती भाग, गुलिका-रंग विशेष और अलसी के समान वर्ण वाले, श्रीवत्स से अंकित वक्षवाले, कुसुम के समान कोमल और कुंडल के समान घुघराले बालों वाले] नलकूबर के समान प्रतीत होंगे। भरतक्षेत्र में दूसरी कोई माता वैसे पुत्रों को जन्म नहीं देगी। पर वह कथन मिथ्या निकला, क्योंकि प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है कि अन्य माताओं 1. प्रस्तुत सूत्र में ऊपर देखिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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