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________________ | अन्तकृद्दशा देवकी को पुनः आगमन को शंका और समाधान E-तयाणंतरं च णं तच्चे संघाडए बारवईए नयरीए उच्च-नीय जाव' पडिलाइ, पडिलाभेत्ता एवं वयासी किण्णं देवाणुप्पिया! कण्हस्स बासुदेवस्स इमोसे बारवईए नयरोए नवजोयणविस्थिण्णाए जाव पच्चक्खं देवलोगभूयाए समणा निग्गंथा उच्चनीय जाव [मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए] अडमाणा भत्तपाणं नो लभंति, जष्णं ताई चेव कुलाई भत्तपाणाए भुज्जो-भुज्जो अणुप्पविसंति ? तए गं ते अणगारा देवई देवि एवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पिए ! कण्हस्स वासुदेवस्स इमोसे बारवईए नयरीए जाव देवलोगभूयाए समणा निम्गंथा उच्चनीय जाव' अडमाणा भत्तपाणं णो लभंति, णो चेव णं ताई ताई कुलाई दोच्चं पि तच्चं पि भत्तपाणाए अणुप्पविसंति। / एवं खलु देवाणुप्पिए ! अम्हे भद्दिलपुरे नयरे नागस्स गाहावइस्स पुत्ता सुलसाए भारियाए प्रत्तया छ भायरो सहोदरा सरिसया जाव नल-कुब्बरसमाणा अरहयो अरिहनेमिस्स अंतिए धम्म सोच्चा संसारभउविग्गा भोया जम्ममरणाणं मुंडा जाव पव्वइया। तए णं अम्हे जं चेव दिवसं पव्वइया तं चेव दिवसं अरहं अरिठ्ठनेमि वंदामो नमसामो, इमं एयारूवं अभिग्गहं प्रोगिण्हामोइच्छामो णं भंते ! तुम्भेहि अन्भणुण्णाया समाणा जाव अहासुहं देवाणुप्पिया। तए णं अम्हे अरहया अरिठ्ठणेमिणा अब्भणुण्णाया समाणा जावज्जीवाए छठंछठेणं जाव विहरामो। तं अम्हे अज्ज छठक्खमणपारणयंसि पढमाए पोरिसीए जाव [सज्झायं करेत्ता, बीयाए पोरिसीए झाणं झियाइत्ता तइयाए पोरिसीए अरहया अरिट्ठनेमिणा अब्भणण्णाया समाणा तिहिं संघाडहिं बारवईए नयरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिखारियाए] अडमाणा तव गेहं अणुप्पविट्ठा / तं णो खलु देवाणुप्पिए! ते चेव णं अम्हे, अम्हे गं अण्णे / देवई देवि एवं वदंति, वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। इसके बाद मुनियों का तीसरा संघाडा आया यावत् उसे भी देवकी देवी प्रतिलाभ देती है। उनको प्रतिलाभ देकर वह इस प्रकार बोली-“देवानुप्रियो ! क्या कृष्ण वासुदेव की इस बारह योजन लम्बी, नव योजन चौड़ी प्रत्यक्ष स्वर्गपुरी के समान द्वारका नगरी में श्रमण निग्रंथों को उच्च-नीच एवं मध्यम कुलों के गृह-समुदायों से, भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए आहार-पानी प्राप्त नहीं होता? जिससे उन्हें आहार-पानी के लिये जिन कुलों में पहले आ चुके हैं, उन्हीं कुलों में पुनः आना पड़ता है ?" देवकी द्वारा इस प्रकार कहने पर वे मुनि देवकी देवी से इस प्रकार बोले—'देवानुप्रिये ! ऐसी बात तो नहीं है कि कृष्ण वासुदेव की यावत् प्रत्यक्ष स्वर्ग के समान, इस द्वारका नगरी में 1. वर्ग-३ का सूत्र-७. 2. वर्ग-१ का सूत्र–६. 3. वर्ग-३ का सूत्र-७. 4. वर्ग-३ का सूत्र-६. 5. वर्ग:-३ का सूत्र–६. 6. वर्ग-३ का सूत्र-६. 7. वर्ग-३ का सूत्र--६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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