________________ 34 ] [अन्तकृद्दशा तब (दीक्षित होने के पश्चात्) वे छहों मुनि जिस दिन मुडित होकर प्रागार से अनगार धर्म में प्रवजित हुए, उसी दिन अरिहंत अरिष्टनेमि को वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोले "हे भगवन् ! हम चाहते हैं कि आपकी आज्ञा पाकर हम जीवन पर्यन्त निरन्तर बेले-बेले तप द्वारा आत्मा को भावित (शुद्ध) करते हुए विचरण करें।" अरिहंत अरिष्टनेमि ने कहा—देवानुप्रियो ! जैसे तुम्हें सुख हो, करो, शुभ कर्म करने में विलम्ब नहीं करना चाहिए। ___ तब भगवान् के ऐसा कहने पर वे छहों मुनि भगवान् अरिष्टनेमि की आज्ञा पाकर जीवन भर के लिये बेले-बेले की तपस्या करते हुए यावत् विचरण करने लगे। छहों अनगारों का देवकी के घर में प्रवेश ७-तए णं ते छ अणगारा अण्णया कयाई छटुक्खमणपारणयंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेंति, जहा गोयमो जाव [बीयाए पोरिसीए झाणं झियायंति, तइयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंता मुहपोत्तियं पडिलेहंति, पडिलेहित्ता भायण-वस्थाई पडिलेहंति, पडिलेहित्ता भायणाई पमज्जंति, पमज्जित्ता भायणाई उग्गाहेंति, उग्गाहित्ता जेणेव अरहा अरिद्वनेमी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता अरहं अरिट्टनेमि वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-] इच्छामो णं भंते ! छट्टक्खमणस्स पारणए तुब्भेहि अन्भणुण्णाया समाणा तिहि संघाडहि बारवईए नयरीए जाव [उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए] अडित्तए। तए णं ते छ अणगारा अरहया अरिटमिणा अब्भणुण्णाया समाणा अरहं अरिट्टनेमि वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता अरहो अरिटनेमिस्स अंतियानो सहसंबवणानो पडिनिक्खमंति, पडिनिक्खमित्ता तिहिं संघाडएहि अतुरियम जाव [चवलमसंभंता जुगंतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरोरियं सोहेमाणा-सोहेमाणा जेणेव बारवई नयरी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता वारवईए नयरीए उच्च. नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं] अडंति / तदनन्तर उन छहों मुनियों ने अन्यदा किसी समय, बेले की तपस्या के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया और गौतम स्वामी के समान (दूसरे प्रहर में ध्यानारूढ हुए, तीसरे पहर में नसिक चपलता से रहित हो कर मखवस्त्रिका, भाजन तथा वस्त्रों की प्रतिलेखना की। तत्पश्चात वे पात्रों को झोली में रख कर और झोली को ग्रहण कर भगवान अरिष्टनेमि स्वामी की सेवा में उपस्थित होते हैं, वन्दना-नमस्कार करते हैं, तदनन्तर निवेदन करते हैं) भगवन् ! हम बेले की तपस्या के पारणे में आपकी आज्ञा लेकर दो-दो के तीन संघाड़ों से द्वारका नगरी में यावत् [साधुवृत्ति के अनुसार धनी-निर्धन आदि सभी घरों में] भिक्षा हेतु भ्रमण करना चाहते हैं। तब उन छहों मुनियों ने अरिहंत अरिष्टनेमि की आज्ञा पाकर प्रभु को वंदन नमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर वे भगवान अरिष्टनेमि के पास से सहस्राम्रवन उद्यान से प्रस्थान करते हैं। फिर वे दो दो के तीन संघाटकों में सहज गति से यावत् [चपलता तथा संभ्रान्ति से रहित, चार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org