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________________ तृतीय वर्ग [ 25 गरुलवूहं (52) सगडवूह (53) जुद्ध (54) निजुद्ध (55) जुद्धातिजुद्ध (56) अट्ठिजुद्ध (57) मुट्ठिजुद्ध (58) बाहुजुद्ध (56) लयाजुद्ध (60) ईसत्थं (61) छरुप्पवायं (62) धणुव्वेयं (63) हिरन्नपागं (64) सुवन्नपागं (65) सुत्तखेड (66) वट्टखेड (67) नालियाखेडं (68) पत्तच्छेज्ज (66) कटगछेज्ज (70) सजीव (71) निज्जीवं (72) सउणिरुप्रमिति / / तए णं से कलायरिए अणीयसं कुमार लेहाइयायो गणियप्पहाणाम्रो सउणिरुप्रपज्जवसाणाम्रो बावरि कलामो सत्तो य प्रत्ययो य करणपोय सिहावेड. सिक्खावेड. सिहावेत्ता सिक्खावेत्ता अम्मापिऊण उवणंइ। तए णं ग्रणीयसकुमारस्स अम्मापियरो तं कलायरियं मधुरेहि क्योंह विपुलेणं वत्थ-गंधमल्लालंकारेणं सक्कारेंति, सम्माणेति, सक्कारिता सम्माणित्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति / दलइत्ता पडिविसज्जेन्ति / तए णं से अणोयसे कुमारे बावत्तरिकलापंडिए णवंगसुत्तपडिबोहिए अट्ठारसविहिप्पगारदेतीभासाविसारए गोइरई गंधवनदृसले हयजोहो गयजोहो रहजोही बाहुजोहो बाहुपमद्दी] प्रलं भोगसमत्थे जाए यावि होत्था। उस नाग गाथापति का पुत्र सुलसा भार्या का प्रात्मज अनीयस नामक कुमार था। (वह) सुकोमल था यावत् उसकी पाँचों इन्द्रियाँ पूर्ण एवं निर्दोष थीं / उसका शरीर विद्या, धन और प्रभुत्व प्रादि के सूचक सामुद्रिक लक्षणों, मस्सा-तिलादि व्यंजनों और विनय, सुशीलता आदि गुणों से युक्त था। मान, उन्मान और प्रमाण से परिपूर्ण एवं अंगोपांग-गत सौन्दर्य से परिपूर्ण था। चन्द्रमा के समान सौम्य (शान्त), कान्त, मनोहर, प्रियदर्शन और पाँच धायमाताओं से परिरक्षित वह दृढप्रतिज्ञ कुमार की तरह यावत १-क्षीरधात्री-दुध पिलाने वाली धाय २-मंडनधात्री-वस्त्राभूषण पहनाने वाली धाय, ३-मज्जनधात्री-स्नान कराने वाली धाय, ४-क्रीडापनधात्री—खेल खिलाने वाली धाय और ५–अंकधात्री—गोद में लेने वाली धाय; इनके अतिरिक्त वह अनीयस कुमार अन्यान्य कुब्जा (कुबड़ी), चिलातिका (चिलात-किरात नामक अनार्य देश में उत्पन्न), वामन (बौनी), वडभी (वड़े पेट वाली), बर्वरी (बर्बर देश में उत्पन्न), बकुश देश की, योनक देश की, पल्हविक देश की, ईसिनिक, धौरुकिन ल्हासक देश की, लकुस देश की, द्रविड देश की, सिंहल देश की, अरब देश की, पुलिंद देश की, पक्कण देश की, वहल देश की, मुरुड देश की, शबर देश की, पारस देश की, इस प्रकार नाना देशों की परदेश-अपने देश से भिन्न राजगृह, को सुशोभित करने वाली, इंगित (मुर की चेष्टा), चिन्तित (मानसिक विचार) और प्रार्थित (अभिलषित) को जानने वाली, अपने-अपने देश के वेष को धारण करने वाली, निपुणों में भी प्रतिनिपुण, विनययुक्त दासियों के द्वारा तथा स्वदेशीय दासियों द्वारा और वर्षधरों (प्रयोग द्वारा नपुसक बनाये हुए पुरुषों), कंचुकियों और महत्तरकों (अन्तःपुर के कार्य की चिन्ता रखने वालों) के समुदाय से घिरा रहने लगा / वह एक के हाथ से रे के हाथ में जाता, एक की गोद से दूसरे की गोद में जाता, गा-गा कर बहलाया जाता, उंगली पकड़ कर चलाया जाता, क्रीड़ा आदि से लालन-पालन किया जाता एवं रमणीय मणिजटित फर्श पर चलाया जाता हुआ वायुरहित और व्याघातरहित) गिरिगुफा में स्थित चम्पक वृक्ष के समान सुखपूर्वक बढ़ने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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