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________________ 24 ] [ अन्तकृद्दशा नामक नगर था। उसके ईशानकोण में श्रीवननामक उद्यान था। वहाँ जितशत्रु राजा राज्य करता था। उस नगर में नाग नाम का गाथापति रहता था। वह अत्यन्त समृद्धिशाली यावत् धनी तेजस्वी विस्तृत और विपुल भवनों, शय्यानों, आसनों, यानों और वाहनोंवाला था तथा सुवर्ण रजत आदि धन की बहुलता से युक्त था। वह अर्थलाभ के उपायों का सफलता से प्रयोग करता था। भोजन तर भी उसके यहा बहतसा अन्न बाकी बच जाता था। उसके घर में दास-दासी आदि और गाय-भैस तथा बकरी आदि पशु थे, और वह बहतों से भी पराभव को प्राप्त नहीं होता था / उस नाग गाथापति की सुलसा नाम की भार्या थी। वह अत्यन्त सुकोमल हाथ-पैरों वाली थी। उसकी पांचों इन्द्रियाँ और शरीर खामियों से रहित और परिपूर्ण था। वह (स्वस्तिक आदि) लक्षण, (तिल मषादि) व्यंजन और गुणों से युक्त थो / माप, भार और प्राकार विस्तार से परिपूर्ण और समस्त सुन्दर अंगों वाला उसका शरीर था। उसकी आकृति चन्द्र के समान सौम्य और दर्शन कान्त और प्रिय था। इस प्रकार उसका रूप बहुत सुन्दर था। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में इस वर्ग के अध्ययनों का और प्रथम अध्ययन में प्रतिपाद्य अनीयसकुमार के माता-पिता का वर्णन है / २-तस्स णं नागस्स गाहावइस्स पुत्त सुलसाए भारियाए अत्तए अणीयसे नाम कुमारे होत्था। सूमाले जाव [अहीण-पडिपुण्ण-पंचिदिय-सरीरे, लक्खण-वंजण-गुणोववेए माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्ण-सुजायसवंगसुदरंगे ससिसोमागारे कंते पियदसणे] सुरुवे पंचधाइपरिक्खित्ते जहा दढपइण्णे जाव [खीरधाईए मंडणधाईए मज्जणधाईए अंकधाईए कोलावणधाईए, बहूहि खुज्जाहिं चिलाइयाहिं वामणियाहि वडभियाहिं बब्बराहि लासियाहि लाउसियाहि दामिलोहि सिंहलोहि मुरंडीहिं सबरीहि पारसीहि जाणादेसीविदेसपरिमंडियाहि इंगिर्याचतियपत्थियक्यिाणियाहिं सदेसणेवत्थगहियवेसाहि निउणकुसलाहिं विणीयाहिं चेडियाचक्कवालतरुणिवंदपरियालपरिवुडे वरिसधरकंचुइमयरवंदपरिक्खित्त हत्थाप्रो हत्थं साहरिज्जमाणे अंकाओ अंकं परिभुज्जमाणे, परिगिज्जमाणे, चालिज्जमाणे, उवलालिज्जमाणे, रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि परिमिज्जमाणे परिमिज्जमाणे णिवायणिव्वाघायंसि] गिरिकंदरमल्लीणे व चंपगपायवे सुहंसुहेणं परिवड्डइ / तए णं तं प्रणीयसं कुमारं सातिरेगप्रवासजायं अम्मापियरो कलायरियस्स उवणेति जाव [तए णं से कलायरिए अणीयसं कुमारं लेहाइयानो गणितष्पहाणाम्रो सउणिरुतपज्जवसाणाम्रो बावरि कलानो सुत्तओ अ अत्थनो अकरणो य सेहाबेइ, सिक्खावेइ / तं जहा--(१) लेहं (2) गणियं (3) रूवं (4) नट्ट (5) गीयं (6) वाइयं (7) सरगयं (8) पोक्खरगयं (6) समतालं (10) जूयं (11) जणवायं (12) पासयं (13) अट्ठावयं (14) पोरेकच्चं (55) दगमट्टियं (16) अन्नविहिं (17) पाणविहिं (18) वयविहिं (16) विलेवणविहिं (20) सयणविहिं (21) अज्जं (22) पहेलियं (23) मागहियं (24) गाहं (25) गोइयं (26) सिलोयं (27) हिरण्णत्ति (28) सुवण्णजुत्ति (26) चुन्नत्ति (30) प्राभरणविहिं (31) तरुणीपडिकम्मं (32) हथिलक्खणं (33) पुरिसलक्खणं (34) हयलक्खणं (35) गयलक्खणं (36) गोणलक्षणं (37) कुक्कुडलक्खणं (38) छत्तलक्खणं (36) डंडलक्खणं (40) असिलक्खणं (41) मणिलक्खणं (42) कागणिलक्खणं (43) वत्थुविज (44) खंधारमाणं (45) नगरमाणं (46) वूह (47) पडिवूहं (48) चार (46) पड़िचार (50) चक्कवूह (51) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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