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________________ 18] [अन्तकृद्दशा दूसरी बात यह भी हो सकती है कि गणधर महाराज अतिशय (ज्ञान विशेष) के धारक होते हैं, इसलिये उन्होंने भविष्य में होने वाले चरितों का भी संकलन कर दिया। इसके अतिरिक्त भावी शिष्यपरम्परा की अपेक्षा से अतीत काल का निर्देश भी दोषयुक्त नहीं कहा जा सकता। 'चउत्थं जाव भावेमाणे' में उपयुक्त चतुर्थ शब्द व्रत--एक उपवास का बोधक है, तथा 'जाव' अर्थात् यावत् और भावेमाणे का अर्थ है-भावयन्-वासयन्-अर्थात् अपने जीवन में उसका प्रयोग करता हुअा। 'मासियं भिक्खुपडिम' का अर्थ है मासिकी भिक्षप्रतिमा / प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञा / भिक्षु की प्रतिज्ञा को भिक्षु-प्रतिमा कहते हैं / ये प्रतिमाएं बारह होती हैं / उनका विस्तृत विवेचन दशाथ तस्कन्ध में किया गया है। इस प्रतिमा का धारक साधु एक अन्न की और एक पानी की दत्ति (दाता द्वारा दिए जाने वाले अन्न और पानी की अखण्डधारा दत्ति कहलाती है।) लेता है। जहां एक व्यक्ति के लिये भोजन बना है, वहां से भोजन लेता है, गर्भवती या छोटे बच्चे की मां के लिये बनाया गया भोजन वह नहीं लेता है / दुग्धपान छुड़वाकर भिक्षा देने वाली स्त्री तथा अपने आसन से उठकर भोजन देने वाली आसन्नप्रसवा स्त्री से भोजन नहीं लेता / जिसके दोनों पैर देहली के भीतर हों या बाहर हों उससे आहार नहीं लेता। दिन के आदि, मध्य और चरम इन तीन भागों में से एक भाग में वह भिक्षा को जाता है। परिचित स्थान पर बह एक रात रहता है, अपरिचित स्थान पर एक या दो राते ठहर जाता है, वह (1) याचनी-आहार की याचना करना, (2) पृच्छनी-मार्ग पूछना, (3) अनुज्ञापनीस्थान आदि के लिये प्राज्ञा लेना, (4) प्रश्नों का उत्तर देना, ये चार भाषाएं बोलता है। वह (1) अधः आराम गृह-जिसके चारों ओर बाग हो, (2) अधोविकट गृह-चारों ओर से खुला हो, ऊपर से ढका हो, (3) अधोवृक्ष मूलगृह-वृक्ष का मूल या वहाँ पर बना स्थान, इन स्थानों पर स्वामी की प्राज्ञा लेकर ठहर सकता है / इन स्थानों में कोई आग लगा दे तो, यह मुनि जीवन की सुरक्षा के लिये स्वयं स्थान से बाहर नहीं निकलता। विहार में यदि पांव में कांटा लग जाए तो उसे नहीं निकालता, अांखों में धूल पड़ जाए तो उसको भी दूर नहीं करता / जहाँ सूर्य अस्त हो जाए वहीं ठहर जाता है। शरीरशुद्धि को छोड़कर जल का प्रयोग नहीं करता। विहार के समय यदि सामने कोई हिंसक जीव आए तो डरकर पीछे नहीं हटता। यदि कोई जीव उसे देखकर डरता हो तो वह एक अोर हो जाता है / शीत-निवारण के लिये गरम स्थानों या वस्त्रों किंवा तथारूप वस्तुओं का सेवन नहीं करता। गरमी का परिहार करने के लिये शीत स्थान में नहीं जाता। इस विधि से मासिकी प्रतिमा का पालन होता है। इसका समय एक मास का है। इस प्रकार साधु के अभिग्रह विशेष का नाम भिक्षु-प्रतिमा है। पहली मासिकी, दूसरी द्वैमासिकी, तीसरी त्रैमासिकी, चौथी चातुर्मासिकी पांचवीं पाञ्चमासिकी छठी पाण्मासिकी और सातवीं साप्तमासिकी कहलाती हैं। पहली प्रतिमा में अन्न-पानी की एक दत्ति, दूसरी में दो, तीसरी में तीन, चौथी में चार, पांचवीं में पांच, छट्ठी में छह, सातवीं में सात दत्तियां ली जाती हैं | आठवीं प्रतिमा का समय सात दिन-रात है / नवमी का समय भी सात दिन-रात है / आठवीं में चौविहार उपवास करना होता है। नवमी में चौविहार बेले-बेले पारणा करना होता है / समय सात दिवस का है। दसवीं का समय भी सात दिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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