________________ प्रथम वर्ग] [17 अंगों में अन्तकृद्दशांग का भी निर्देश किया गया है। इसके प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन में श्री गौतमकुमार का जीवन प्रस्तुत हुआ है। तो क्या वह गौतम कुमार यही था या अन्य ? यदि यही था तो उसने अन्तकृद्दशांग का अध्ययन कैसे किया? जिसका निर्माण ही बाद में हुआ है ? इसका समाधान इस प्रकार हो सकता है कि प्रथम अध्ययन में जिस गौतम कुमार का वर्णन किया गया है यही हमारे द्वारकाधीश महाराज अन्धकवृष्णि के सुपुत्र हैं। अब रही बात पढ़ने की। इसका समाधान यह है कि भगवान् अरिष्टनेमि के गराधर अनुपम ज्ञानादि गुणों के धारक थे। उनकी अनेकों वाचनाएं थीं, जो कि इन्हीं पूर्वोक्त अंगों एवं उपांगों के नाम से प्रसिद्ध थीं। प्रत्येक में विषय भिन्न-भिन्न होता था और उनका अध्ययन-क्रम भी विभिन्न ही होता था। वर्तमान काल में जो वाचना उपलब्ध हो रही है, वह भगवान् महावीर के पट्टधर श्रद्धेय श्रीसुधर्मा स्वामी की है / गौतमकुमार ने जो एकादश अंग पढ़ थे वे तत्कालीन किसी गणधर को वाचना के 11 अंग थे / वर्तमान में उपलब्ध वाचनावाले अंगशास्त्रों का उन्होंने अध्ययन नहीं किया। यह वाचना तो उस समय में थी ही नहीं, अत: इस वाचना के पढ़ने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। आचार्य अभयदेव सूरि ने भगवती सूत्र की व्याख्या में स्कन्धक कुमार के प्रसंग को लेकर ऐसी ही अाशंका उठाकर उसका जो समाधान प्रस्तुत किया है, वह मननीय एवं प्रस्तुत प्रकरण में उत्पन्न शंका के समाधान के लिये पठनीय है ‘एक्कारस अंगाई अहिज्जइ'-इह कश्चिदाह-नन्वनेन स्कन्धक चरितात् प्रागेवैकादशांगनिष्पत्तिरवसीयते, पंचमांगान्तर्भूतं च स्कन्धकचरितमुपलभ्यते, इति कथं न विरोधः ? उच्यते-श्रीमनमहावीर-तीर्थे किल नव वाचनाः / तत्र च सर्ववाचनासु स्कन्धक-चरितात् पूर्वकाले ये स्कन्धकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते, स्कन्धकचरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जंबूनामानं स्व शिष्यमंगीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्धकचरितमेवाश्रित्य तदर्थप्ररूपणा कृतेति न विरोधः / अथवा सातिशयादित्वात गणधराणामनागतकाल-भाविचरित-निबन्धनमदृष्टमिति। भाविशिष्यसन्तानापेक्षया अतीतकालनिर्देशोऽप्यदुष्ट इति / / अर्थात्-यह प्रश्न उपस्थित होता है कि स्कन्धकचरित से पहले ही 11 अंगों का निर्माण हो चुका था। स्कन्धकचरित पंचम अंग (भगवतीसूत्र) में उपलब्ध होता है। तब स्कन्धक ने 11 अंग पढ़े, इसका क्या अर्थ हुया ? क्या उसने अपना ही जीवन पढ़ा? इसका उत्तर इस प्रकार है भगवान महावीर के तीर्थशासन में नौ वाचनाएं थी। प्रत्येक वाचना में स्कन्धक के जीवन का अर्थ (शिक्षारूप प्रयोजन) समानरूप से अवस्थित रहता था / अन्तर केवल इतना होता था कि जीवन के नायक के सभी साथी भिन्न-भिन्न होते थे। भाव यह है कि जो शिक्षा स्कन्धक के जीवन से मिलती है उसी शिक्षा को देने वाले अन्य जीवन-चरितों का संकलन तत्कालीन वाचनाओं में मिलता था। सुधर्मास्वामी ने अपने शिष्य जंबू स्वामी को लक्ष्य करके अपनी इस वाचना में स्कन्धक के जीवनचरित से ही उस अर्थ की प्ररूपणा की है, जो अर्थ अन्य वाचनाओं में गर्भित था, अतः यह स्पष्ट है कि स्कन्धक ने जो अंगादि शास्त्र पढ़े थे, वे सुधर्मास्वामी की वाचना के नहीं थे। 1. भगवतीसूत्र-शतक-२, उद्देशक-१, सूत्र 93. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org