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________________ [ अन्तकृद्दशा चौला, पचौला, मासखमण, अर्धमासखमण आदि विविध प्रकार के तप से आत्मा को भाबित करते हुए विचरने लगे। अरिहंत भगवान् अरिष्टनेमि ने अब द्वारका नगरी के नन्दनवन से विहार कर दिया और वे अन्य जनपदों में विचरण करने लगे। तपस्या और शास्त्र-स्वाध्याय में तत्पर अनगार गौतम अवसर पाकर भगवान् अरिष्टनेमि की सेवा में उपस्थित हुए। विधिपूर्वक वंदना, नमस्कार करने के अनन्तर उन्होंने भगवान् से निवेदन किया ___"भगवन् ! मेरी इच्छा है यदि आप प्राज्ञा दें तो मैं मासिकी भिक्षु-प्रतिमा (प्रतिज्ञा विशेष) की आराधना करूं।" भगवान् से आज्ञा पाकर वे साधना में लीन हो गए। जैसे स्कन्धक मुनि ने साधना की वैसे ही मुनि गौतमकुमार ने भी बारह भिक्षुप्रतिमानों का आराधन करके गुरगरत्न नामक तप का भी वैसे ही आराधन किया। पूर्ण रूप से स्कन्धक की तरह ही चितन किया, भगवान् से पूछा तथा स्थविर मुनियों के साथ वैसे ही शत्रुजय पर्वत पर चढ़े / 12 वर्ष की दीक्षा पर्याय पूर्ण कर एक मास की संलेखना द्वारा यावत् [आत्मा को पाराधित किया। अनशन द्वारा साठ भोजनों का परित्याग कर, जिस अर्थ-प्रयोजन के लिये नग्न भाव-साधवत्ति, मुण्डभाव-द्रव्य से सिर को मुडित करना, भाव से परिग्रह का त्याग करना, केश लोच अर्थात् बालों को हाथों से उखाड़ना, ब्रह्मचर्यवास, अस्नानक स्नान न करना, अछत्रक-छत्र का प्रयोग न करना, उपानह~-जूते का उपयोग न करना, भूमिशय्या-भूमि पर शयन करना, फलकशय्या तख्त पर शयन करना, परघरप्रवेश-दूसरों के घरों में भिक्षार्थ प्रवेश करना, लाभालाभ----किसी समय वस्तु का प्राप्त होना, किसी समय न होना, मानापमान-कहीं मान कहीं अपमान होना, दूसरों द्वारा की गई हीलना-अवहेलना, निंदा, खिसना--लोगों के सामने जाति आदि का गुप्त रहस्य प्रकट करना, ताडना-मारना, गहीं, निंदा, ऊँच-नीच नाना प्रकार के 22 परीषह इन्द्रियों के दुःखदायक उपसर्ग सहन करना [आदि किया जाता है, अन्त में उस प्रयोजन को सिद्ध कर लिया और अन्तिम श्वासों द्वारा] सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सकल कर्मजन्य सन्तापों से रहित एवं सब प्रकार के दुःखों से विमुक्त हो गए। श्रमरण भगवान महावीर ने प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है / विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में दीक्षा के अनन्तर गौतम अनगार की अध्ययनशीलता, तपोभावना, और सम्यक् आचरण से लेकर अन्तिमविधि कर सिद्ध पद की उपलब्धि तक का वर्णन प्रस्तुत किया गया है। 'तहारूवाणं थेराणं' अर्थात् तथारूप स्थविर / तथारूप का अर्थ है---शास्त्र में वर्णन किये गये प्राचार का पालन करने वाले और स्थविर का अर्थ है वृद्ध साधु / स्थानांग सूत्र में इसके तीन भेद बताए हैं---(१) वयः स्थविर-साठ वर्ष की आयु वाले, (2) सूत्र स्थविर-स्थानांग-समवायांग आदि अंग सूत्रों के ज्ञाता, (3) प्रव्रज्या-स्थविर-२० वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाले साधु / सामायिक के 5 अर्थ प्रसिद्ध हैं-(१) सामायिक चारित्र-सर्व सावद्य योगों से निवृत्ति, (2) श्रावक का नवम व्रत, देशविरति रूप सामायिक चारित्र, (3) सामायिक श्रत, आचारांग आदि, (4) आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन और (5) द्रव्य लेश्या से उत्पन्न होने वाला परिणाम-अध्यवसाय / प्रस्तुत अर्थों में "आवश्यक सूत्र का प्रथम अध्ययन" यह अर्थ अधिक अभीष्ट है / अतः मुनि गौतम ने सामायिक आदि से लेकर 11 अंगों का अध्ययन किया। अब प्रश्न होता है कि-ग्यारह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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