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________________ प्रथम वर्ग ] [ 15 एकेन्द्रिय) की रक्षा करके संयम का पालन करना चाहिए। इस विषय में तनिक भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। तत्पश्चात् गौतमकुमार मुनि ने श्रमण भगवान् अरिष्टनेमि के निकट इस प्रकार का यह धर्म सम्बन्धी उपदेश सुनकर और हृदय में धारण करके सम्यक् प्रकार से उसे अंगीकार किया। वे भगवान् की आज्ञा के अनुसार गमन करते, उसी प्रकार खड़े रहते, उसी प्रकार बैठते, उसी प्रकार शयन करते, उसी प्रकार आहार करते और उसी प्रकार मधुर भाषण करते हुए प्रमाद और निद्रा का त्याग करके प्रारणों, भूतों, जीवों और सत्वों की यतना करके संयम का आराधन करने लगे] / अनगार बन जाने पर गौतम निर्ग्रन्थ-प्रवचन को सन्मुख रखकर भगवान् की आज्ञाओं का पालन करते हुए विचरने लगे। ६-तए णं से गोयमे अण्णया कयाई अरहो अरिट्टनेमिस्त तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाइ अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहिं चउत्थ जाव [छट्ठट्ठम-दसम-दुवालसेहि मासद्धमासखमहि विविहेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं अरहा अरिटुनेमी अण्णया कयाई वारवईयो नयरीयो नंदणवणाप्रो पडिणिक्खमइ, बहिया जणवयविहारं विहरइ / तए णं से गोयमे अणगारे अण्णया कयाइ जेणेव अरहा अरिद्वनेमी तेणेब उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिठ्ठनेमि तिक्त्तो प्रायाहिणं फ्याहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहि अभणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उबसंपज्जित्ता णं विरित्तए। एवं जहा खंदो तहा बारस भिक्खुपडिमाग्रो फासेई / गुणरयणं पि तवोकम्मं तहेव फासेइ निरवसेसं / जहा खंदो तहा चितेइ, तहा प्रापुच्छइ, तहा थेरेहि सद्धि सेत्तुजं दुरूहई, बारस' वरिसाइं परियाए मासियाए संलेहणाए जाव [अपाणं झोसेइ, झोसित्ता सद्धि भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छेदित्ता जस्सहाए कीरइ नग्गभावे मुडभावे, केसलोए, बंभचेरवासे, अण्हाणगं, अच्छत्तयं, अणुवाहणयं, भूमिसेज्जाओ, फलगसेज्जासो, परघरप्पवेसे, लद्धावलद्धाइं माणावमाणाई, परेसि होलणामो, निदणायो, खिसणाश्रो. तालणाश्रो. गरजणायो, उच्चावया विरूवरूवा बावीसं परीसहोव सग्गा-गामकंटगा अहियासिज्जति तमट्ठाराहेइ, चरिमुस्सासेहि] सिद्ध-बुद्ध-मुत्त-परिनिवाएसव्वदुक्खपहीणे। निक्षेप एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं पढमस्स वगस्स पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्त / / - इसके पश्चात् गौतम अनगार ने अन्यदा किसी समय भगवान् अरिष्टनेमि के सान्निध्य में रहने वाले प्राचार, विचार की उच्चता को पूर्णतया प्राप्त स्थविरों के पास सामायिक से लेकर आचारांगादि 11 अंगों का अध्ययन किया यावत् [अध्ययन करके फिर अनेक उपवास, बेला, तेला, 1. कहीं-कहीं 'मासियाए संलेहणाए वारस वरिसाई पारियाए' ऐसा पाठ है परन्तु इसमें जाव की पूर्ति बराबर नहीं बैठती प्रतः उल्लिखित पाठ ही समीचीन प्रतीत होता है। 2. वर्ग 1, सूत्र 2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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