________________ 14 / अन्तकृद्दशा तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवो अरिद्वनेमिस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएस सोच्चा णिसम्म सम्म पडिवज्जइ / तमाणाए तह गच्छइ, तह चिट्ठइ, तह निसीयइ, तह तुयट्टइ, तह भुंजड, तह भासइ, तह उट्टाए उट्टाय पाणेहिं भूहि जोवेहिं सोहि संजमइ] तए णं से गोयमे अणगारे जाए इणमेव णिग्गथं पावयणं पुरो काउं बिहरई। उस काल तथा उस समय श्रु त-धर्म का प्रारंभ करने वाले, धर्म के प्रवर्तक अरिष्टनेमि भगवान् यावत् संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण कर रहे थे। (जब वे द्वारका नगरी के बाहर उद्यान में विराजमान हुए, तब इनके समवसरण में) चार प्रकार के देव उपस्थित हुए। कृष्ण वासुदेव भी वहाँ आये / तदनन्तर उनके दर्शन करने को गौतम कुमार भी तैयार हुए / जैसे मेघ कुमार श्रमरण भगवान महावीर स्वामी के पास गये थे वैसे ही गौतम कुमार भी भगवान अरिष्टनेमि के और धर्म का श्रवण किया। विशेष यह कि भगवान अरिष्टनेमि से कहा-देवानप्रिय ! मैं अपने मातापिता से पूछकर आपके पास दीक्षा ग्रहण करूगा। जिस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मेघ कुमार दीक्षित हुए थे यावत् (ठीक उसी प्रकार गौतम कुमार ने भी) [स्वयं ही पंचमुष्ठिक लोच किया। लोच करके जहाँ अरिष्टनेमि भगवान् थे वहाँ आये / प्राकर श्रमण भगवान् अरिष्टनेमि को तीन बार दाहिनी ओर से प्रारंभ करके प्रदक्षिणा की। फिर वन्दना-नमस्कार किया और कहा भगवन् ! यह संसार जरा और मरण से (जरा-मरण रूप अग्नि से) आदीप्त है, प्रदीप्त है। भगवन्, यह संसार आदीप्त और प्रदीप्त है। जैसे कोई गाथापति घर में आग लग जाने पर, उस घर में जो अल्प भार वाली और बहुमूल्य वस्तु होती है उसे, ग्रहण करके स्वयं एक ओर चला जाता है। वह सोचता है कि "अग्नि में जलने से बचाया हा यह पदार्थ मेरे लिए आगे-पीछे हित के लिए, सुख के लिए, क्षमा (समर्थता) के लिए, कल्याण के लिए और भविष्य में उपयोग के र मेरा भी यह एक प्रात्मा रूपी भांड (वस्त) है, जो मझे इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और अतिशय मनोहर है-इस आत्मा को मैं निकाल लगा--जरा-मरण की अग्नि में भस्म होने से बचा लूंगा, तो यह संसार -जन्म-मरण का उच्छेद करने वाला होगा। अतएव मैं चाहता हूँ कि देवानुप्रिय ! (ग्राप) स्वयं ही मुझे प्रवजित करें—मुनिवेष प्रदान करें, स्वयं ही मुझे मुडित करें-मेरा लोच करें, स्वयं ही प्रतिलेखन आदि सिखावें, स्वयं ही सूत्र और अर्थ प्रदान करके शिक्षा दें, स्वयं ही ज्ञानादिक आचार, गोचरी, विनय, वैनयिक (विनय का फल), चरण सत्तरी, करणसत्तरी, संयमयात्रा और मात्रा (भोजन का परिमाण) आदि रूप धर्म का प्ररूपण करें। तत्पश्चात् श्रमरण भगवान् अरिष्टनेमि ने गौतमकुमार को स्वयं ही प्रव्रज्या प्रदान की और स्वयं ही यावत् प्राचारगोचर आदि धर्म की शिक्षा दी कि- हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार-पृथ्वी पर युग मात्र दृष्टि रखकर चलना चाहिए, इस प्रकार-निर्जीव भूमि पर खड़ा होना चाहिए, इस प्रकार-- भूमि का प्रमार्जन करके बैठना चाहिए, इस प्रकार-सामायिक का उच्चारण करके, शरीर की प्रमार्जना करके शयन करना चाहिए, इस प्रकार-वेदना आदि कारणों से निर्दोष आहार करना चाहिए, इस प्रकार-हित मित और मधुर भाषण करना चाहिए। इस प्रकार--अप्रमत्त एवं सावधान होकर प्राण (विकलेन्द्रिय), भूत (वनस्पतिकाय) जीव (पंचेन्द्रिय) और सत्त्व (शेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org