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________________ प्रथम वर्ग ] [ 13 सुमिणदसण-कहणा, जम्मं बालत्तणं कलायो य / जोव्वण-पाणिग्गहणं, कण्णा वासा य भोगा य॥' नवरं गोयमो अढण्हं रायवरकण्णाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हार्वेति, अट्ठओ दानो। उस द्वारका नगरी में अन्धकवृष्णि नाम का राजा निवास करता था। वह हिमवान्हिमालय पर्वत की तरह महान् था। (उसकी ऋद्धि-समृद्धि का वर्णन औपपातिक सूत्र में किया गया है।) अन्धकवष्णि राजा की धारिणी नाम की रानी थी। कभी किसी समय वह धारिणी रानी अन्यत्र वरिणत (पुण्यवान् जन के योग्य) उत्तम शय्या पर शयन कर रही थी, जिसका वर्णन महाबल (के प्रकरण में रिणत शय्या के) समान समझ लेना चाहिये / तत्पश्चात् स्वप्न-दर्शन, पुत्रजन्म, उसकी बाल-लीला, कलाज्ञान, यौवन, पाणिग्रहण, रम्य प्रासाद एवं भोगादि-(यह सब वर्णन भी महाबल जैसा ही समझना)। विशेष यह कि उस बालक का नाम गौतम रखा गया, उसका एक ही दिन में आठ श्रेष्ठ राजकुमारियों के साथ पाणिग्रहण करवाया गया तथा दहेज में पाठ-पाठ प्रकार की वस्तुएं दी गईं। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में गौतम कुमार के गर्भ में आने से लेकर विवाह तथा विषयभोगों के उपभोग तक का वर्णन किया गया है, अब सूत्रकार अग्रिम सूत्र में परमाराध्य भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में पहुँच कर गौतम कुमार के दीक्षित होने का वर्णन करते हैं - ८-तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठनेमी प्राइगरे जाव [संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे] विहरइ, चविवहा देवा आगया। कण्हे वि जिग्गए। धम्म सोच्चा "जं नवरं देवाणप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि / देवाणप्पियाणं [अंतिए मुडे भवित्ता प्रागाराग्रो अणगारियं पध्वयामि] एवं जहा मेहे जाव (तहा गोयमे वि) [सयमेव पंचम ट्रियं लोयं करेइ / करित्ता जेणामेव समणे भगवं अरिटनेमी तेणामेव उवागच्छद। उवागच्छित्ता समणं भगवं श्ररिट्रनेमि तिक्खत्तो प्रायाहिणं फ्याहिणं करेइ / करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो-- प्रालित्ते णं भंते ! लोए, पलिते गं भंते ! लोए, प्रालित्तपलित्ते णं भंते ! लोए जराए मरणेण य / से जहा नामए केई गाहावई प्रागारंसि झियायमाणंसि जे तत्थ भंडे भवइ अप्पभारे मोल्लगुरुए तंगहाय प्रायाए एगंतं प्रवक्कमइ, एस मे णित्थारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए अ सेसाए आणगामियत्ताए भविस्सह। एवामेव मम वि एगे पाया भंडे इकते पिए मणन्ने मणामे, एस मे णित्थारिए समाणे संसारवोच्छेयकरे भविस्सइ। तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाहि सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सेहावियं, सिक्खावियं, सयमेव आयार-गोयर-विणय-वेणइय-चरणकरण-जाया-मायावत्तियं धम्ममाइक्खियं / तए णं समणे भगवं अरिनेमी सयमेव पवावेइ, सयमेव प्रायार० जाव धम्ममाइक्खइ-एवं देवाणप्पिया! गंतव्वं चिद्वियव्वं णिसीयव्वं तुट्टियव्वं भुजियव्वं भासियवं, एवं उढाए उढाय पाहि भूएहिं जोवेहि सत्तेहि संजमेणं संजमियब्वं, अस्सि च णं अट्ठ णो पमाएयव्वं / 1. यह गाथा अंगसुत्तारिण में नहीं है। 2. M. C. Modi द्वारा सम्पादित अंतगड में 'गोयमो नामेणं' पाठ है। 3. सुत्र नं. 2 में प्रस्तुत पाठ पूर्ण किया गया है। यहां विहरइ हेतु अपूर्ण पाठ ब्राकेट में पूर्ण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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