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________________ [5 प्रथम वर्ग] बोधक है / यहाँ पर उस "काल" का यह अर्थ हुआ कि इस अवसर्पिणीके चतुर्थ बारे में इस प्रागम की वाचना दी गई थी। परन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं कि चतुर्थ पारे में किस समय वाचना दी गई थी? क्योंकि चतुर्थ आरा 42 हजार वर्ष कम कोटा-कोटी सागरोपम का है / अत: इस बात को "तेणं समएण" ये पद देकर स्पष्ट किया है। उस समय का यह अर्थ है कि जिस समय आर्य सुधर्मा स्वामी विचरण करते हुए चंपा नगरी में पधारे, उस समय उन्होंने जम्बू स्वामी को प्रस्तुत आगम की वाचना दी। इससे यह ध्वनित होता है कि प्रस्तुत आगम की वाचना भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद दी गई थी। वृत्ति में अभयदेव सुरिजी ने काल से अवसर्पिणी का चतुर्थ विभाग अर्थात् चौथा पारा और 'समएण' का विशेष काल अर्थ किया है / इसके पश्चात् यह बताया गया है कि उस काल और उस समय में प्रार्य सुधर्मा स्वामी चंपा नगरी में पधारे और नगरी के बाहर पूर्णभद्र चैत्य में ठहरे। उनकी शरीर-संपदा, उनके कुल एवं उनके गुणों का वर्णन प्रस्तुत प्रागम में नहीं किया गया है, क्योंकि नायाधम्मकहाणो में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है / अत: यहाँ केवल संकेत कर दिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत आगम के प्रतिपादक भगवान् महावीर के पंचम गणधर एवं प्रथम पट्टधर आर्य सुधर्मा स्वामी थे और उनके शिष्य आर्य जम्बू स्वामी प्रश्न-कर्ता थे। प्रस्तुत विवरण से ऐसा प्रश्न होता है कि आर्य सुधर्मा स्वामी का विवरण प्रस्तुत करनेवाले उत्क्षेप-उपोद्घात के कर्ता कौन हैं ? इसका समाधान यह है कि जैसे सुधर्मा स्वामी ने गौतमादि गणधरों का उल्लेख किया है, उसी तरह आर्य जंबू स्वामी के बाद होनेवाले प्रभवादि आचार्यों ने इस उत्क्षेप में आर्य सुधर्मा स्वामी का वर्णन किया है। अत: ऐसा ही परिलक्षित होता है कि इस उपोद्घात के कर्ता प्राचार्य प्रभवादि ही हों। इस प्रकार "तेण समएणं" शब्द का उपलक्षण-अर्थ यह होता है कि---चतुर्थ प्रारक के अनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी चंपा नगरी में पधारे और चंपा नगरी के बाहर पूर्णभद्रनामक चैत्य में ठहरे। उनके आगमन का शुभ-संदेश सुनकर नागरिक उनके दर्शनार्थ आए और धर्मोपदेश सुनकर वापस लौट गये। उस समय उनके शिष्य आर्य जंव स्वामी विनय-भक्ति एवं श्रद्धापूर्वक उनके चरणों में उपस्थित होकर विनम्र शब्दों में बोले / क्या बोले, यह आगे कहा जाएगा। प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकर्ता ने वर्णन-क्षेत्र एवं वर्णन-कर्ता प्रादि के नाम का उल्लेख मात्र किया है / वर्णन-स्थान एवं वर्णन-कर्ता के सम्पूर्ण स्वरूप को जानने के लिये अन्य आगमों को देखने का संकेत कर दिया है / अतः चंपा नगरी एवं उसमें रहे हुए पूर्णभद्र चैत्य का वर्णन एवं उसमें पधारे हुए आर्य सुधर्मा स्वामी के जीवन-परिचय से लेकर परिषद के आवागमन तक का वर्णन औपपातिक आदि आगमों से जानना चाहिए। उर्स में चंपा नगरी एवं पूर्णभद्र चैत्य का विस्तार से वर्णन किया गया है। ऐसे स्थानों पर इन वर्णित विषयों का संसूचक शब्द है-“वण्ण प्रो।" 'वण्णश्रो' यह पद वर्णक का बोधक है। वर्णन करनेवाला प्रकरण वर्णक शब्द से व्यवहृत किया जाता है / प्रागे जहाँ-जहाँ जिस पद के प्रागे वर्णक पद का उल्लेख मिले, वहाँ-वहाँ पर उस पद से संसूचित पदार्थ का वर्णन करनेवाले पाठ की ओर संकेत रहेगा। __ यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि प्रागमों में अंग सूत्रों का ही स्थान प्रमुख होने पर भी यहाँ अंग सूत्रों में वरिणत पाठों के लिए पाठकों को अंगबाह्य आगमों पर क्यों अवलंबित किया जाता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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