SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [अन्तकृद्दशा आगम रचना के अनुसार पहले अंगों की और बाद में उपांगों की रचना हुई है। ऐसी स्थिति में इन अंगसूत्रों में 'वरुण ग्रो' पाठ कैसे उचित वैठ सकते हैं ? अंतकृद्दशांग अंग सूत्र है और औपपातिक सूत्र उपांग है, तो फिर अंतगड में प्रोपपातिक सूत्र का सन्दर्भ कैसे अभीष्ट हो सकता है ? आगमों में अंगसूत्रों का स्थान सर्वोच्च है / उपांगों की रचना का आधार भी ये अंगसूत्र ही हैं यह निर्विवाद सत्य है। फिर भी अंगसूत्रों में उपांगसूत्रों का निर्देश करने का मुख्य कारण आगमों को लिपिबद्ध करते समय इस क्रम का ध्यान नहीं रखना है। चार मूल, चार छेद, औपपातिक सूत्र, आचारांग सूत्र, स्थानांगसूत्र, इन में किसी सूत्र का उद्धरण नहीं दिया / प्रतीत होता है कि इन को लिपिबद्ध प्रथम कर लिया गया था / तत्पश्चात् लिपिबद्ध करते समय जिस विषय का वर्णन विस्तारपूर्वक एक सूत्र में कर दिया गया, उस का पौनः पुन्येन वर्णन करना उचित नहीं समझा गया। २-"जइ णं भंते ! समणेणं आइगरेणं, जाव [तित्थयरेणं सयंसंबद्धणं, पुरिसुत्तमेणं, पुरिससीहेणं, पुरिसवरपुडरीएणं, पुरिसवरगंधह स्थिणा, लोगुत्तमेणं, लोगनाहेणं, लोगहिएणं, लोगपईवेणं, लोगपज्जोयगरेणं, अभयदएणं, सरणदएणं, चक्खदएणं, मग्गदएणं, बोहिदएणं, धम्मदएणं, धम्मदेसएणं, धम्मनायगेणं, धम्मसारहिणा, धम्मवरचाउरंतचक्कट्टिणा, अप्पडिहयवरनाणदंसण-धरणं वियदृछ उमेणं, जिणेणं, जावएणं, तिन्नेणं, तारएणं, बुद्धणं, बोहएणं, मुत्तेणं, मोअगेणं, सम्वन्नेणं, सम्वदरिसणेणं सिवमयलमरुपमणंतमक्खयमवाबाहमपुणरावित्तिअं सासयं ठाणं] संपत्तेणं, सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं अयम? पण्णत्ते, अट्ठमस्स गं भंते ! अंगस्स अंतगडदसाणं समणेणं के अट्रे पण्णते?" “एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं अट्ठ वग्गा पण्णत्ता।" "हे भगवन् ! यदि श्र तधर्म की आदि करने वाले तीर्थकर, [गुरु के उपदेश के बिना स्वयं ही बोध को प्राप्त, पुरुषों में उत्तम, कर्म-शत्रु का विनाश करने में पराक्रमी होने के कारण पुरुषों में सिंह के समान, पुरुषों में श्रेष्ठ कमल के समान, पुरुषों में गंधहस्ती के समान, अर्थात् जैसे गंधहस्ती की गंध से ही अन्य हस्ती भाग जाते हैं, उसी प्रकार जिनके पुण्य प्रभाव से ही ईति, भीति आदि का विनाश हो जाता है, लोक में उत्तम, लोक के नाथ, लोक का हित करने वाले, लोक में प्रदीप के समान, लोक में विशेष उद्योत करनेवाले, अभय देने वाले, शरणदाता, श्रद्धा रूप नेत्र के दाता. धर्ममार्ग के दाता. बोधिदाता, देशविरति और सर्वविरति रूप धर्म के दाता, धर्म के उपदेशक, धर्म के नायक, धर्म के सारथि, चारों गतियों का अन्त करने वाले धर्म के चक्रवर्ती, कहीं भी प्रतिहत न होने वाले केवलज्ञान न के धारक, घातिकर्म रूप छद्म के नाशक, रागादि को जीतनेवाले और उपदेश द्वारा अन्य प्राणियों को जितानेवाले और, संसार-सागर से स्वयं तिरे हुए और दूसरों को तारनेवाले, स्वयं बोधप्राप्त और दूसरों को बोध देनेवाले, स्वयं कर्म-बन्धन से मुक्त और उपदेश द्वारा दूसरों को मुक्त करनेवाले, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव-उपद्रव रहित, अचल-चलन आदि क्रिया से रहित, अरुज शारीरिक मानसिक व्याधि की वेदना से रहित, अनन्त अक्षय अव्याबाध और अपुनरावृत्ति-पुनरागमन से रहित सिद्धिगतिनामक शाश्वत स्थान को प्राप्त श्रमण भगवान् ने सप्तम अंग उपासकदशाङ्ग का यह अर्थ प्रतिपादन किया है, जिस को अभी मैंने आपके मुखारविंद से सुना है / हे भगवन् ! अब यह बतलाने की कृपा करें कि श्रमण भगवान् महावीर ने अष्टम अंग अन्तकृद्दशाङ्ग का क्या अर्थ बताया है ?" 1. नायाधम्मकहानो-श्रुत. 1, अ. १--पृ. 5 में मूल पाठ "ठाणं संपत्तणं" न होकर "ठाणमुवगएणं" है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy