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________________ 4] [अन्तकृद्दशा श्रद्धा उत्पन्न हुई, संशय उत्पन्न हुआ, कौतुहल उत्पन्न हुआ, विशेष रूप से श्रद्धा, संशय और कौतूहल उत्पन्न हुआ। तब वे उत्थान कर उठ खड़े हुए और उठ कर के जहाँ आर्य सुधर्मा स्थविर थे, वहीं आये। आकर आर्य सुधर्मा स्थविर की तीन बार दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके बारगी से स्तुति की और काया से नमस्कार किया। स्तुति और नमस्कार करके आर्य सुधर्मा स्थविर से न बहुत दूर और न बहुत समीप उचित स्थान पर स्थित होकर, सुनने की इच्छा करते हुए, सन्मुख दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले विवेचन---जैन वाङमय में आगमों का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि आगम, तीर्थंकरोपदिष्ट हैं। महामहिम, सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी तीर्थकर भगवान् तीर्थ की स्थापना करते हैं और सब जीवों की दया एवं रक्षा के लिए धर्मोपदेश करते हैं, इसीलिये प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा है-“सव्व-जगजीव-रक्खरण-दयट्ठयाए भगवया पावयणं सुकहियं / " उनके अर्थरूप प्रवचन को गणधर सूत्र रूप में ग्रथिन करते हैं और वह बारह भागों में विभक्त होता है, जिसे आगमिक भाषा में द्वादशांगी कहते हैं / भगवान् का उपदेश चार अनुयोगों में विभक्त किया गया है-(१) द्रव्यानुयोग, (2) गणितानुयोग, (3) चरणकररणानुयोग और (4) धर्मकथानुयोग : / स्थानांग आदि आगम द्रव्यानुयोग में गर्भित होते हैं / भगवती सूत्र आदि आगमों में गरिगतानुयोग अधिक है / चरणकरणानुयोग अर्थात् साधु एवं श्रावकों के आचार धर्म का विवेचन आचारांगादि सूत्रों में है। धर्मकथा का विशेष स्वरूप ज्ञाताधर्मकथा, अन्तगडदशा आदि आगमों में है। जैनागमों के अनुसार द्वादशांगी का उपदेश तीर्थंकर करते हैं। बे बारह अंग इस प्रकार हैं(१) प्राचारांग, (2) सूत्रकृतांग, (3) स्थानांग, (4) समवायांग, (5) भगवतीसूत्र, (6) ज्ञाताधर्मकथा, (7) उपासकदशांग, (8) अन्तकृदृशांग, (6) अनुत्तरोपपातिक, (10) प्रश्नव्याकरण, (11) विपाकसूत्र और (12) दृष्टिवाद / इन बारह अंगों में वर्तमान काल में बारहवें दष्टि वाद को छोडकर अन्य सर्व अंग उपलब्ध हैं और उन में अन्तकृदृशांग सुत्र आठवां अंग सूत्र है। प्रस्तुत प्रागम में प्रतिपाद्य विषय के पूर्वभूमिका रूप में प्रथम सूत्र है, जो ग्रागम-प्रसिद्ध संवादात्मक शैली से प्रकट होता है। इसे उपोद्घात या उत्क्षेप भी कहा जाता है। उत्क्षेप की यह विधि करीब चार सूत्र तक रहेगी, तदन्तर प्रतिपाद्य विषय के कथन का प्रारम्भ होगा। ___ इस प्रथम सूत्र में “तेणं कालेण तेणं समएणं" श्रादि शब्दों द्वारा आगमरचना के समय और स्थान की ओर पाठक का ध्यान खींचकर इसमें मुख्यत: पांच विषयों का निरूपण प्रस्तुत किया गया है-(१) वर्णनक्षेत्र, (2) उस समय की परिस्थिति, (3) आगम के प्रतिपादक, (4) प्रतिपादक की योग्यता और (5) प्रश्नकर्ता / प्रस्तुत सूत्र में प्रथम आगम-रचना के समय की ओर और बाद में स्थान की ओर संकेत किया गया है। इसमें बताया है कि "उस काल और उस समय" में चंपा नाम की एक नगरी थी और उसके बाहर पूर्णभद्रनामक चैत्य था। जहाँ पर आर्य सुधर्मा स्वामी ने अपने प्रिय शिष्य आर्य जंबू को प्रस्तुत आगम का बोध कराया था। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि "काल और समय" दोनों एक ही अर्थ के द्योतक हैं, फिर दो शब्दों का प्रयोग करने का क्या आशय है ? साधारणतः समय और काल पर्यायवाची हैं। परन्तु वास्तव में देखा जाए तो ये दोनों शब्द भिन्नार्थक हैं। काल शब्द उत्सपिणी और अवसपिणी रूप कालचक्र का बोधक है और समय शब्द उस कालचक्र में हुए व्यक्ति के समय का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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