________________ डाक्टर राधाकृष्णन ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि, इन तीन तीर्थकारों का उल्लेख पाया जाता है।४० स्कन्दपुराण के प्रभास खण्ड में एक वर्णन है.-अपने जन्म के पिछले भाग में वामन ने तप किया। उस तप के प्रभाव से शिव ने वामन को दर्शन दिये / वे शिव, श्यामवर्ण, अचेल तथा पद्मासन से स्थित थे / वामन ने उनका नाम नेमिनाथ रखा। यह नेमिनाथ इस घोर कलिकाल में सव पापों का नाश करने वाले हैं। उनके दर्शन और स्पर्श से करोड़ों यज्ञों का फल प्राप्त होता है।४१ प्रभासपुरारा४२ में भी अरिष्टनेमि की स्तुति की गई है। महाभारत के अनुशासन पर्व में 'शुर: शौरिर्जनेश्वर' पद पाया है। विज्ञों ने 'शुरः शौरिजिनेश्वरः' मानकर उसका अर्थ अरिष्टनेमि किया है।४४ लंकावतार के ततीय परिवर्तन में तथागत बुद्ध के नामों की सूची दी गई है। उनमें एक नाम "अरिष्टनेमि" है।४५ सम्भव है अहिंसा के दिव्य आलोक को जगमगाने के कारण अरिष्टनेमि अत्यधिक लोकप्रिय हो गये थे जिसके कारण उनका नाम बुद्ध की नाम-सूची में भी पाया है। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. राय चौधरी ने अपने वैष्णव परम्परा के प्राचीन इतिहास में श्रीकृष्ण को अरिष्टनेमि का चचेरा भाई लिखा है। कर्नल टॉड ने४३ अरिष्टनेमि के सम्बन्ध में लिखा है कि मुझे ऐसा ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में चार बुद्ध मेधावी महापुरुप हुए हैं, उनमें एक ग्रादिनाथ हैं, दूसरे नेमिनाथ हैं, नेमिनाथ ही स्केन्डीनेविया निवासियों के प्रथम प्रोडिन तथा चीनियों के प्रथम "फो" देवता था। प्रसिद्ध कोषकार डॉ. नगेन्द्रनाथ वसु, पुरातत्त्ववेत्ता डाक्टर फुहरर, प्रोफेसर बारनेट, मिस्टर करवा, डाक्टर हरिदत्त, डाक्टर प्राणनाथ विद्यालंकार, प्रभति अनेक-अनेक विद्वानों का स्पष्ट मन्तव्य है कि भगवान अरिष्टनेमि एक प्रभावशाली पुरुष थे। उन्हें ऐतिहासिक पुरुष मानने में कोई बाधा नहीं है। छान्दोग्योपनिषद में भगवान अरिष्टनेमि का नाम "घोर मांगिरस ऋषि" पाया है, जिन्होंने श्रीकण को प्रात्मयज्ञ की शिक्षा प्रदान की थी। धर्मानन्द कौशाम्बी का मानना है कि आंगिरस भगवान् अरिष्टनेमि का ही नाम था।४० आंगिरस ऋषि ने श्रीकष्ण से कहा-श्रीकपण जब मानव का अन्त समय सन्निकट पाये, उस समय उसको तीन बातों का स्मरण करना चाहिये-- 1. त्वं अक्षतमसि-तू अविनश्वर है। 2. त्वं अच्युतमसि तू एक रस में रहने वाला है। 3. त्वं प्रारसंशितमसि-तू प्राणियों का जीवनदाता है।४६ 40. Indian Philosophy, Vol. I. P. 287. 41. स्कन्धपुराण प्रभास खण्ड. 42. प्रभास पुराग 49 / 50 / 43. महाभारत अनुशासन पर्व अ. 149, श्लो 50, 22 44. मोक्षमार्ग प्रकाश, पण्डित टोडरमल। 45. बौद्ध धर्म दर्शन, प्राचार्य नरेन्द्रदेव, पृ. 162. 46. अन्नल्स ग्राफ दी भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट पत्रिका, जिल्द 23, 5.122 / 47. भारतीय संस्कृति और अहिंसा-पृ. 57 / 48. तद्धतद् घोरं आङ्गिरसः, कृष्णाय देवकीपुत्रायो वत्वोवाचाऽपिपासा एव स बभूव, सोऽन्त वेलायामेतत्त्रयं प्रतिपद्येताक्षतमस्यच्युतमसि प्राणसंसीति / -छान्दोग्योपनिषद् प्र. 3, खण्ड 18. [27] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org