________________ प्रस्तुत पागम में श्रीकृष्ण का इन्द्रधनुषी व्यक्तित्व निहारा जा सकता है। वे तीन खण्ड के अधिपति होने पर भी माता-पिता के परमभवत थे। माता देवकी की अभिलाषापूत्ति के लिये वे हरिणगमेषी देव की आराधना करते हैं। भाई के प्रति भी उनका अत्यन्त स्नेह है। भगवान अरिष्टनेमि के प्रति भी अत्यन्त निष्ठा है। जहां वे रणक्षेत्र में असाधारण विक्रम का परिचय देकर रिपुमर्दन करते हैं, वज्र से भी कठोर प्रतीत होते हैं, वहां एक वृद्ध व्यक्ति को देखकर उनका हृदय अनुकम्पा से द्रवित हो जाता है और उसके सहयोग के लिये स्वयं भी ईंट उठा लेते हैं। द्वारका विनाश की बात सुनकर वे सभी को यह प्रेरणा प्रदान करते हैं कि भगवान अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या ग्रहण करो। दीक्षितों के परिवार के पालन-पोषण प्रादि की व्यवस्था मैं करूंगा। स्वयं की महारानियाँ पुत्र-पुत्रियाँ और पौत्र जो भी प्रव्रज्या के लिये तैयार होते हैं, उन्हें वे सहर्ष अनुमति देते हैं। प्रावश्यकचूरिण में वर्णन है कि वे पूर्ण रूप से गुणानुरागी थे। कुत्ते के शरीर में कुलबुलाते हुये कीड़ों की अोर दृष्टि न डाल कर उस के चमचमाते हुये दांतों की प्रशंसा की, जो उनके गुणानुराग का स्पष्ट प्रतीक है। प्रस्तुत प्रागम के पाँच वर्ग तक भगवान अरिष्टनेमि के पास प्रवजित होने वाले साधकों का उल्लेख है। भगवान अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थकर हैं। यद्यपि अाधुनिक इतिहासकार उन्हें निश्चित तौर पर अभी तक ऐतिहासिक पुरुष नहीं मानते हैं, किन्तु उनकी ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। इतिहास इस स्वीकृति की ओर बढ़ रहा है। जब उन्हीं के युग में होने वाले श्रीकृष्ण को ऐतिहासिक पुरुष माना जाता है तो उन्हें भी ऐतिहासिक पुरुष मानने में संकोच नहीं होना चाहिए। __ जैन परम्परा में ही नहीं, वैदिक परम्परा में भी अरिष्टनेमि का उल्लेख अनेकों स्थलों पर हुअा है / ऋग्वेद में अरिष्टनेमि शब्द चार बार पाया है। 33 'स्वस्ति नस्ताक्ष्यों अरिष्टनेमि:3४' यहां पर अरिष्टनेमि शब्द भगवान् अरिष्टनेमि के लिये आया है। इनके अतिरिक्त भी ऋग्वेद 34, के अन्य स्थलों पर 'तार्य अरिष्टनेमि' का वर्णन है। यजुर्वेद 35 और सामवेद३६ में भी भगवान अरिष्टनेमि को ताक्ष्य अरिष्टनेमि लिखा है। महाभारत में भी ताय शब्द का प्रयोग हुया है। जो भगवान् अरिष्टनेमि का हो अपर नाम होना चाहिये। उन्होंने राजा सगर को मोक्ष-मार्ग का जो उपदेश दिया, वह जैन धर्म के मोक्ष-मन्तव्यों से अत्यधिक मिलता-जूलता है।३८ ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्पष्ट है कि सगर के समय में वैदिक लोग मोक्ष में विश्वास नहीं करते थे / अतः यह उपदेश किसी श्रमण संस्कृति के ऋपि का ही होना चाहिये। यजुर्वेद में एक स्थान पर अरिष्टनेमि का वर्णन इस प्रकार है- अध्यात्म यज्ञ को प्रकट करने वाले, संसार के सभी भव्य जीवों को यथार्थ उपदेश देने वाले, जिनके उपदेश से जीवों की अत्मा बलवान होती है, उन सर्वज्ञ नेमिनाथ के लिये आहुति समर्पित करता हूँ।३६ 33, (क) ऋग्वेद 1314189 / 6 / (ख) ऋग्वेद 1224 / 180 / 10 / (ग) ऋग्वेद 314153 / 17 / (घ) ऋग्वेद 10.12.178.1 ! 34. ऋग्वेद-१११४१८९।९। 1111166, 1112 / 17 / 1 / 35. यजुर्वेद 25 // 19 / 36. सामवेद–३।९। 37. महाभारत शान्ति पर्व—२८८।४ / 38. महाभारत शान्ति पर्व-२८८१५१६। 39. वाजसनेथि : माध्यंदिन शुक्लयजुर्वेद, अध्याय 9 मंत्र 25, सातवलेकर संस्करण (विक्रम 1984) / [ 26 ] Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only