________________ और श्रीमद्भागवत में विस्तार से श्रीकृष्ण का चरित्र पाया है। छान्दोग्य उपनिषद् में कृष्ण को देवकी का पुत्र कहा है। वे घोर अङ्गिरस ऋषि२६ के निकट अध्ययन करते हैं। श्रीमद्भागवत में कृष्ण को परमब्रह्म बताया है। 27 वे ज्ञान, शान्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज इन छह गुणों में विशिष्ट हैं। उनके जीवन के विविध रूपों का चित्रण साहित्य में हया है। वैदिक परम्परा के प्राचायों ने अपनी दृष्टि से श्रीकृष्गा के चरित्र को चित्रित किया है। जयदेव विद्यापति प्रादि ने कृष्ण के प्रेमी रूप को ग्रहण कर कृष्णभक्ति का प्रादुर्भाव किया। सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने कृष्ण की बाल-लीला और यौवन-लीला का विस्तार से विश्लेषण किया। रीतिकाल के कवियों के आराध्य देव श्रीकृष्ण रहे और उन्होंने गीतिकाएं व मुक्तकों के रूप में पर्याप्त साहित्य का सृजन किया / आधुनिक युग में भी वैदिक परम्परा के विज्ञों ने प्रिय-प्रवास, कृष्णावतार आदि अनेक ग्रन्थ लिखे हैं 128 बौद्ध साहित्य के घटजातक२६ में श्रीकृष्ण-चरित्र का वर्णन पाया है। यद्यपि घटनाक्रम में व नामों में पर्याप्त अन्तर है, तथापि कृष्ण-कथा का हार्द एक सदृश है। __ जैन परम्परा में श्री कृष्ण सर्वगुणसम्पन्न, श्रेष्ठ, चरित्रनिष्ठ, अत्यन्त दयालु, शरणागतवत्सल, प्रगल्भ, धीर, विनयी, मातृभक्त, महान् वीर, धर्मात्मा, कर्तव्यपरायण, बुद्धिमान, नीतिमान और तेजस्वी व्यक्तित्व के धनी वासुदेव हैं / समवायांग30 में उनके तेजस्वी व्यक्तित्व का जो चित्रण है, वह अद्भुत है, वे त्रिखण्ड के अधिपति अर्धचक्री हैं। उन के शरीर पर एक सौ पाठ प्रशस्त चिह्न थे। वे नरवषभ और देवराज इन्द्र के सरश थे, महान योद्धा थे। उन्होंने अपने जीवन में तीन सौ साठ युद्ध किये, पर किसी भी युद्ध में वे पराजित नहीं हये। उन में वीस लाख अष्टपदों की शक्ति थी।३१ किन्तु उन्होंने अपनी शक्ति का कभी भी दुरुपयोग नहीं किया। वैदिव परम्परा की भांति जैन परम्परा ने बासुदेव श्रीकृष्ण को ईश्वर का अंश यर अवतार नहीं माना है। वे श्रेष्ठतम शासक थे / भौतिक दृष्टि से वे उस युग के सर्वश्रेष्ठ अधिनायक थे। किन्तु निदानकृत होने से वे आध्यात्मिक दृष्टि से चतुर्थ गुणस्थान से आगे विकास न कर सके / वे तीर्थकर अरिष्टनेमि के परम भक्त थे। अरिष्टनेमि से श्रीकृष्ण वय की दृष्टि से ज्येष्ठ थे तो प्राध्यात्मिक दृष्टि से अरिष्टनेमि ज्येष्ठ थे।३२ (एक धर्मवीर थे तो दूसरे कर्मवीर थे, एक निवृत्तिप्रधान थे तो दूसरे प्रवत्तिप्रधान थे) अत: जब भी अरिष्टनेमि द्वारका में पधारते तब श्रीकृष्ण उन की उपासना के लिये पहुँचते थे / अन्तकृद्दशा, समवायाङ्ग, ज्ञाताधर्मकथा, स्थानाङ्ग, निरयावलिका, प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन, प्रभति ग्रागमों में उन का यशस्वी व तेजस्वी रूप उजागर हुना है। आगमों के व्याख्या-साहित्य में नियुक्ति, रिण, भाप्य और टीका ग्रन्थों में उन के जीवन से सम्बन्धित अनेक घटनाएं हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों हो परम्परागों के मूर्धन्य मनीषियों ने कृष्ण के जीवन प्रसङ्गों को लेकर सौ से भी अधिक ग्रन्थों की रचनाएं की हैं। भाषा की दृष्टि से वे रचनाएं प्राकृत, अपभ्रश, संस्कृत पुरानी गुजराती, राजस्थानी व हिन्दी में है। - - -- ---------- -- - 26. छान्दोग्योपनिषद् अ. 3, खण्ड 17, श्लोक 6, गीताप्रेस गोरखपुर / 27. श्रीमद्भागवत-दशम स्कन्ध, 8-45, 3113124-25. 28. देखिये-भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण-एक अनुशीलन पृ. 176 से 156. 29. जातककथाएं, चतुर्थ खण्ड 454 में घटजातक-भदन्त आनन्द कौशल्यायन / 30. समवायाङ्ग 158. 31. आवश्यक नियुक्ति 415. 32. अन्तकृद्दशा वर्म 1 से 3 तक / [25] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org