________________ परिशिष्ट-२ ] [ 201 कई वार राजगृह पाये थे / वे प्रायः गुद्धकूट पर्वत, कलन्दकनिवाय और वेणुवन में ठहरते थे।' एक बार बुद्ध जीवक कौमारभृत्य के आम्रवन में थे तब अभयकुमार ने उनसे हिंसा-अहिंसा के सम्बन्ध में चर्चा की थी। जब वे वेणुवन में थे तब अभयकुमार ने उनसे विचार-चर्चा की थी। साधु सकलोदायि ने भी बुद्ध से यहां पर वार्तालाप किया। एक बार बुद्ध ने तपोदाराम जहां गर्म पानी के कुंड थे वहाँ पर विहार किया था / बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् राजगृह की अवनति होने लगी। जब चीनी यात्री होनसांग यहाँ पर आया था तब राजगह पर्व जैसा नहीं था। आज वहाँ के निवासी दरिद्र और अभावग्रस्त हैं / आजकल राजगृह 'राजगिर' के नाम से विश्र त है। राजगिर बिहार प्रान्त में पटना से पूर्व और गया से पूर्वोत्तर में अवस्थित है। (11) रैवतक : पाजिटर रैवतक की पहचान काठियावाड के पश्चिम भाग में वरदा की पहाड़ी से करते हैं। ज्ञातासूत्र के अनुसार द्वारका के उत्तर-पूर्व में रैवतक नामक पर्वत था।' अन्तकृत्दशा में भी यही वर्णन है / त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र के अनुसार द्वारका के समीप पूर्व में रैवतक गिरि, दक्षिण में माल्यवान शैल, पश्चिम में सौमनस पर्वत और उत्तर में गंधमादन गिरि हैं। महाभारत की दृष्टि से रैवतक कुशस्थली के सन्निकट था। वैदिक हरिवंशपुराण के अनुसार यादव मथुरा छोड़कर सिन्धु में गये और समुद्र किनारे रैवतक पर्वत से न अतिदूर और न अधिक निकट द्वारका बसाई।' आगम साहित्य में रैवतक पर्वत का सर्वथा स्वाभाविक वर्णन मिलता है।'' भगवान् अरिष्टनेमि अभिनिष्क्रमण के लिए निकले, वे देव और मनुष्यों से परिवृत शिविकारत्न में प्रारूढ़ हुए और रैवतक पर्वत पर अवस्थित हुए।११ राजीमती भी संयम लेकर द्वारका से 1. मझिमनिकाय, (सारनाथ 1633) 2. मज्झिमनिकाय, अभयराजकुमार सूत्तन्त, पृ, 234 3. मज्झिमनिकाय, चलसकलोदायी सुत्तन्त, पृ. 305. 4. हिस्ट्री ऑव धर्मशास्त्र, जिल्द 4, पृ. 794-95 5. ज्ञाताधर्म कथा, 15, सू. 58 6. अन्तकृद्दशांग 7. तस्याः पुरो रैवतकोऽपाच्यामसीत्त माल्यवान् सौमनसोऽद्रिः प्रतीच्यामुदीच्या गंधमादनः / / –त्रिषष्टि, पर्व 8, सर्ग 5, श्लोक 418 8. कुशस्थली पुरी रम्यां रैवतेनोपशोभिताम् -महाभारत, सभापर्व, अ. 14, श्लोक 50 9. हरिवंशपुराण 2 / 55. 10. ज्ञाताधर्मकथा 115, सूत्र 58 11. देव-मणुस्स-परिवडो, सीयारयणं तनो समारूढो / निक्खमिय बारगापो, रेवयम्मि ठिो भगवं / / --उत्तराध्ययन 22 / 22 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org