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________________ 200 ] [अन्तकृद्दशा नीचे ही तपोदा, और महातपोपनीरप्रभ नामक उष्ण पानी का एक विशाल कुण्ड था।' वर्तमान में भी वह राजगिर में तपोवन नाम से प्रसिद्ध है। भगवान महावीर ने अनेक चातुर्मास वहां व्यतीत किये / 2 दो सौ से भी अधिक बार उनके समवसरण होने के उल्लेख आगम साहित्य में मिलते हैं। वहाँ पर गुणशील' मंडिकुच्छ और मोग्गरिपाणि' आदि उद्यान थे। भगवान महावीर प्राय: गुणशील (वर्तमान में जिसे गुणावा कहते हैं) उद्यान में ठहरा करते थे। राजगृह व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। वहां पर दूर-दूर से व्यापारी आया करते थे। वहां से तक्षशिला, प्रतिष्ठान, कपिलवस्तु, कुशीनारा, प्रभूति भारत के प्रसिद्ध नगरों में जाने के मार्ग थे।' बौद्ध ग्रन्थों में वहां के सुन्दर धान के खेतों का वर्णन है। आगम साहित्य में राजगृह को प्रत्यक्ष देवलोकभूत एवं अलकापुरी सदृश कहा है / महाकवि पुष्पदन्त ने लिखा है-सोने, चांदी से निर्मित राजगृही ऐसी प्रतिभासित होती थी कि स्वर्ग से अलकापुरी ही पृथ्वी पर आ गई है। रविषेणाचार्य ने राजगृह को धरती का यौवन कहा है / ' अन्य अनेक कवियों ने राजगृह के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला है। जैनियों का ही नहीं अपितु बौद्धों का भी राजगह के साथ मधुर संबंध रहा है। विनयपिटक से स्पष्ट है कि बुद्ध गृहत्याग कर राजगृह पाए। तब राजा श्रेोगिक ने उनको अपने साथ राजगृह में रहने की प्रेरणा दी थी। पर बुद्ध ने वह बात नहीं मानी। बुद्ध अपने मत का प्रचार करने के लिए 1. (क) व्याख्याप्रज्ञप्ति, 15, पृ. 141 (ख) बृहत्कल्पभाष्य, वृत्ति 213429 (ग) वायुपुराण, 24 / 5 2. (क) कल्पसूत्र, 4 / 123. (ख) व्याख्याप्रज्ञप्ति, 7 / 4, 19, 215 (ग) आवश्यक नियुक्ति, 473 / 4921518 3. (क) ज्ञातृधर्मकथा, पृ. 47 (ख) दशाश्रु तस्कंध, 109 / पृ. 364 (ग) उपासकदशा, 8, पृ. 51 4. व्याख्याप्रज्ञप्ति, 15. 5. अन्तकृद्दशांग 6, पृ. 31 6. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. 462 7. पच्चक्खं देवलोगभूया एवं अलकापुरीसंकासा / 8. तहि परुवरु णामे रायगिहु कणय रयण कोडिहि डिउ / वलिवंड घरं तहो सुख इहिं सुरणयर गयरापडिउ / / --गायकुमार चरिउ, 6 9. तत्रास्ति सर्वतः कांत नाम्ना राजगृहं पुरम् / कुसुमामोदमुभगं भुवनस्येव यौवनम् / पद्मपुराण 33 / 2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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