________________ अष्टम वर्ग ] [ 151 इसके पश्चात् तीसरी परिपाटी में वह काली प्रार्या उपवास करती है और लेपरहित पारणा करती है। शेष पहले की तरह है। ऐसे ही काली प्रार्या ने चौथी परिपाटी की आराधना की। इसमें विशेषता यह है कि सब पारणे आयंबिल से करती हैं / शेष उसी प्रकार है। गाथार्ण प्रथम परिपाटी में सर्वकामगुण, दूसरी में विगयरहित पारणा किया। तीसरी में लेप रहित और चौथी परिपाटी में आयंबिल से पारणा किया / इस भांति काली आर्या ने रत्नावली तप की पांच वर्ष दो मास और अट्ठाईस दिनों में सूत्रानुसार यावत् अाराधना पूर्ण करके जहाँ प्रार्या चन्दना थीं वहाँ आई और प्रार्या चंदना को वंदनानमस्कार किया। तदनन्तर बहुत से उपवास, बेला, तेला, चार, पाँच आदि अनशन तप से अपनी आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगी। विवेचन- "अलेवार्ड' अर्थात् जिस भोजन में विकृति का लेप भी न हो, जो भोजन घृतादि से चुपड़ा हुआ भी न हो, एकदम रूखा हो, उसे अलेपकृत कहते हैं / 'आयंबिल'--शब्द प्राकृतभाषा का है। संस्कृत में इसके प्राचाम्ल, प्राचामाम्ल तथा आयामाम्ल, ये तीन रूप बनते हैं। इसमें एक ही बार घृत-दूध-दधि-तेल-गुड़-शक्कर आदि से रहित नीरस भोजन करना होता है / यथा-चावल, उड़द, सत्तू भुने हुए चने आदि / रत्नावली तप की चारों परिपाटियों में पाँच वर्ष, दो मास और 28 दिन लगते हैं। काली आर्या की अन्तिम साधना : सिद्धि ४–तए णं सा काली अज्जा तेणं उरालेणं जाव [विउलेणं पयत्तेणं पग्गाहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धण्णणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तणं उत्तमेणं उदारणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्का लुक्खा निम्मंसा अद्विचम्मावणद्धा किडिकिडियाभूया किसा] धमणिसंतया जाया यावि होत्था। से जहा इंगालसगडी वा जाव [उण्हे दिण्णा सुक्का समाणी ससई गच्छइ, ससदं चिट्ठइ, एवामेव कालीए वि अज्जा ससई गच्छइ, ससई चिट्टइ, उवचिए तवेणं, अवचिए मंस-सोणिएणं] सुहुययासणे इव भासरासिपलिच्छण्णा तवेणं, तेएणं, तवतेयसिरीए अईव-अईव उवसोहेमाणी-उवसोहेमाणी चिट्ठइ / तए णं तोसे कालीए अज्जाए अण्णया कयाइ पुव्वरत्ता-वरत्तकाले अयमज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था, जहा खंदयस्स चिंता जाव अस्थि उहाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे तावता मे सेयं कल्लं जाव' जलते अज्जचंदणं अज्ज आपुच्छित्ता प्रज्जचंदणाए अज्जाए अब्भणुण्णायाए समाणीए संलेहणा-भूसणा-झूसियाए मत्तपाण-पडियाइक्खाए कालं प्रणवकखमाणीए विह रित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं जेणेव अज्जचंदणा अज्जा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्जचंदणं अज्जं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासो-"इच्छामि गं अज्जो ! तुम्भेहि अब्भणुण्णाया समाणी संलेहणा जाव विहरित्तए / अहासुहं / तए णं सा काली प्रज्जा अज्जचंदणाए अब्भणुण्णाया समाणी संलेहणा-झूसणा-झूसिया जाव' 1. वर्ग 3, सूत्र 22. 2. 3. ऊपर आ चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org