________________ 150 / 1 अन्तकृद्दशा मास और बाईस अहोरात्र में, [यथासूत्र, अर्थानुसार, तदुभयानुसार, मार्गानुसार, कल्पानुसार सम्यक्प्रकार से, काया द्वारा स्पर्श कर, पालकर शोधित कर, पार कर प्रशंसनीय] अाराधना पूर्ण की। विवेचन–रयणावली का अर्थ वृत्तिकार' के शब्दों में इस प्रकार है-रयणालि त्ति, रत्नावली प्राभरण विशेषः, रत्नावलीतपः रत्नावली। यथाहि रत्नावली उभयतः पादौ सूक्ष्म-स्थूलस्थूलतर-विभाग-काहलिकाख्य-सौवर्णावयवद्वययुक्ता भवति, पुनर्मध्यदेशे स्थूल विशिष्टमण्यलंकृता च भवति, एवं यत्तप: पट्टादावुपदर्यमानमिममाकारं धारयति तद्ररत्नावलीत्युच्यते-अर्थात् रत्नावली एक आभूषण विशेष होता है। उसकी रचना के समान जिस तप का आराधन किया जाये उसको रत्नाबली तप कहते हैं / जैसे रत्नावली भूषण दोनों ओर से प्रारंभ में सूक्ष्म फिर स्थूल, फिर उस से अधिक स्थूल, मध्य में विशेष स्थूल मणियों से युक्त होता है, वैसे ही जो तप प्रारंभ में स्वल्प फिर अधिक, फिर विशेष अधिक होता चला जाता है वह रत्नावली है। जिस प्रकार रत्नावली से शरीर बढ़ती है उसी प्रकार रत्नावली तप आत्मा को सद्गुणों से विभूषित करता है। रत्नावली तप में पाँच वर्ष दो मास और अट्ठाईस दिन लगते हैं। इस तप का यन्त्र पूर्व पृष्ठ पर दिया गया है। ३–तयाणंतरं च णं दोच्चाए परिवाडीए चउत्थं करेइ, करेत्ता विगइवज्जं पारेइ / छठें करेइ, करेत्ता विगइवज्ज पारेइ / एवं जहा पढमाए परिवाडीए तहा बीयाए वि, नवरं-सव्वपारणए विगइवज्ज पारेइ जाव [एवं खलु एसा रयणावलीए तवोक्कम्मरस बिइया परिवाडी एगेणं संवच्छरेणं तिहि मासेहि बावीसाए य अहोरत्तेहिं जाव पाराहिया भवइ / तयाणंतरं च णं तच्चाए परिवाडीए चउत्थं करेइ, करेत्ता अलेवाडं पारेइ। सेसं तहेव / नवरं अलेवाडं पारे / एवं चउत्था परिवाडी / नवरं सवपारणए आयंबिलं पार इ / सेसं तं चैव / संगहणी गाहा पढभमि सम्वकामं, पारणयं बिइयए विगइवज्ज / तइयंमि अलेवाडं, आयंबिलमो चउस्थम्मि // 1 // तए णं सा काली अज्जा रयणावलीतवोकम्म पंचहि संवच्छरोहि दोहि य मासेहि अट्टवीसाए य दिवसेहि अहासुत्तं जाव पाराहेत्ता जेणेव प्रज्जचंदणा अज्जा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्जचंदणं अज्ज वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता बहूहि चउत्थ-छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहि तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणी विहरइ / इस एक परिपाटी में तीन सौ चोरासी दिन तपस्या के एवं अठासी दिन पारणा के होते हैं। इस प्रकार कुल चार सौ बहत्तर दिन होते हैं। इसके पश्चात् दूसरी परिपाटी में काली आर्या ने उपवास किया और विकृति (विगय) रहित पारणा किया, बेला किया और विगय रहित पारणा किया। इस प्रकार यह भी पहली परिपाटी के समान है। इसमें केवल यह विशेष (अन्तर) है कि पारणा विगयरहित होता है। इस प्रकार सूत्रानुसार इस दूसरी परिपाटी का आराधन किया जाता है। 1. अन्तगडसूत्र-स -सवत्ति-पत्र-२५. 2..3. वर्ग 8, सूत्र 2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org