________________ 152] [ अन्तकृद्दशा विहरइ / तए णं सा काली अज्जा प्रज्जचंदणाए अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई अट्ट संवच्छराइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्टि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता, जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे जाव' चरिमुस्सासेहि सिद्धा। निवखेवनो। तत्पश्चात् काली आर्या, उस उराल-प्रधान, [विपुल, दीर्घकालीन, विस्तीर्ण, सश्रीक-शोभासम्पन्न, गुरु द्वारा प्रदत्त अथवा प्रयत्नसाध्य, बहुमानपूर्वक गृहीत, कल्याणकारी, नीरोगता-जनक, शिव-मुक्ति के कारण, धन्य मांगल्य-पापविनाशक, उदन-तीव्र, उदार-निष्काम होने के कारण औदार्य वाले, उत्तम-अज्ञान अन्धकार से रहित और महान् प्रभाववाले, तपःकर्म से शुष्क-नीरस शरीरवाली, भूखी, रूक्ष, मांसरहित और नसों से व्याप्त हो गयी थी। जैसे कोई कोयलों से भरी गाड़ी हो, सूखी लकड़ियों से भरी गाड़ी हो, पत्तों से भरी गाड़ी हो, धूप में डालकर सुखाई हो अर्थात् कोयला, लकड़ी पत्त आदि खूब सुखा लिये गये हों और फिर गाड़ी में भरे गये हों, तो वह गाड़ी खड़खड़ अावाज करती हुई चलती है और ठहरती है, उसी प्रकार काली प्रार्या हाड़ों की खड़खड़ाहट के साथ चलती थी और खड़खड़ाहट के साथ खड़ी रहती थी। वह तपस्या से तो उपचित-वद्धि को प्राप्त थी, मगर मांस और रुधिर से अपचित-हास को प्राप्त हो गई थी। भस्म के समूह से आच्छादित अग्नि की तरह तपस्या के तेज से देदीप्यमान वह तपस्तेज की लक्ष्मी से अतीव शोभायमान हो रही थी। एक दिन रात्रि के पिछले प्रहर में काली प्रार्या के हृदय में स्कन्दकमुनि के समान विचार उत्पन्न हुअा-इस कठोर तप-साधना के कारण मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है। तथापि जब तक मेरे इस शरीर में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम है, मन में श्रद्धा, धैर्य एवं वैराग्य है तब तक मेरे लिये उचित है कि कल सर्योदय होने के पश्चात प्रार्या चंदना से पूछकर, उनकी प्राज्ञा प्राप्त होने पर, संलेखना झषणा का सेवन करती हई भक्तपान का त्याग करके मृत्यु के प्रति निष्काम हो कर विचरण करूं।" ऐसा सोचकर वह अगले दिन सूर्योदय होते ही जहाँ आर्या चंदना थी वहाँ आई और आर्या चन्दना को वंदना-नमस्कार कर इस प्रकार बोली-“हे आर्ये! आपकी आज्ञा हो तो मैं संलेखना झूषणा करती हुई विचरना चाहती हूँ। आर्या चन्दना ने कहा"हे देवानुप्रिये ! जैसे तुम्हें सुख हो, वैसा करो। सत्कार्य में विलम्ब न करो।" तब आर्या चन्दना की प्राज्ञा पाकर काली आर्या संलेखना झूषणा ग्रहण करके यावत् विचरने लगी। काली आर्या ने आर्यचन्दना आर्या के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और पूरे आठ वर्ष तक चारित्रधर्म का पालन करके एक मास को संलेखना से आत्मा को झूषित कर साठ भक्त का अनशन पूर्ण कर, जिस हेतु से संयम ग्रहण किया था यावत् उसको अन्तिम श्वासोच्छ्वास तक पूर्ण किया और सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गई। विवेचन-आर्या काली ने अपनी गुरुणी से ग्यारह अंगशास्त्रों का अध्ययन किया, इस कथन से यह बात भली भांति प्रमाणित हो जाती है कि जिस प्रकार साधु को अंगशास्त्र पढ़ने का अधिकार है उसी प्रकार साध्वी को भी है। इसके अतिरिक्त काली देवी की जीवनी से यह भी सिद्ध हो जाता है कि परम-कल्याणरूप निर्वाणपद की प्राप्ति में साधु और साध्वी दोनों का समान अधिकार है। व्यवहारसूत्र के दसवें उद्देशक में साधु-साध्वी के पाठ्यक्रम का वर्णन किया गया है। वहाँ लिखा है कि दस वर्ष की दीक्षावाला साधु व्याख्याप्रज्ञप्ति-(भगवती) सूत्र पढ़ सकता है, इससे पहले 1. वर्ग 5, सूत्र 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org