________________ 142 ] / अन्तकृद्दशा उस काल और उस समय वाणारसी नगरी में काममहावन नामक उद्यान था। उस वाणारसी नगरी में अलक्ष नामक राजा था। उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर यावत् महावन उद्यान में पधारे। जनपरिषद् प्रभु-वन्दन को निकली, राजा अलक्ष भी प्रभु महावीर के पधारने की बात सुनकर प्रसन्न हया और कोणिक राजा के समान वह भी यावत् प्रभु की सेवा में उपासना करने लगा। प्रभु ने धर्मकथा कही। तब अलक्ष राजा ने श्रमण भगवान महावीर के पास 'उदायन' की तरह श्रमणदीक्षा ग्रहण की / विशेषता यह कि उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्य सिंहासन पर बिठाया / ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। बहुत वर्षों तक श्रमणचारित्र का पालन किया यावत् विपुलगिरि पर्वत पर जाकर सिद्ध हुए। इस प्रकार "हे जंबू ! श्रमण भगवान् महावीर ने अष्टम अंग अंतगड दशा के छठे वर्ग का यह अर्थ कहा है।" विवेचन—प्रस्तुत सोलहवें अध्ययन में वाराणसी नगरी के अलक्ष नरेश के जीवन का उल्लेख किया गया है। अलक्ष नरेश भगवान महावीर के चरणों में परम श्रद्धालु भक्त थे। इनकी प्रभु चरणों में निष्ठा एवं आस्था का दिग्दर्शन कराने के लिये सूत्रकार ने चंपा-नरेश कुणिक की ओर संकेत किया है, जिसका वर्णन औपपातिक सूत्र में है। “जहा उदायणे तहा निक्खंते" का अर्थ है—जिस प्रकार महाराजा उदायन ने दीक्षा ग्रहण की थी, उसी प्रकार अलक्ष नरेश भी दीक्षित हुए। उदायन राजा का वर्णन भगवतीसूत्र के शतक 13 उ. 6 में पाया है। उसके अनुसार उदायन सिन्धु-सौवीर ग्रादि सोलह देशों का स्वामी था / एक दिन वह पौषधशाला में पौषध करके बैठा हुआ था। धर्म-जागरण करते हुए उसे भगवान् महावीर की स्मृति आ गई। वह सोचने लगा-वह नगर, कानन धन्य हैं जहां भगवान् विहार करते हैं / वे राजा, आदि धन्य हैं जो भगवान की वाणी सुनते हैं, उनकी उपासना करते हैं, अपने हाथ से उन्हें निर्दोष भोजन, वस्त्र, पात्र आदि देते हैं। मेरा ऐसा सौभाग्य कहाँ ? मुझे तो उन महाप्रभु के दर्शन करने का भी अवसर नहीं मिलता। चिन्तन की धारा ऊर्ध्वमुखी होने लगी। उसने सोचा--यदि भगवान् मेरी नगरी में पधार जाएँ तो मैं उनकी सेवा करू, और साथ ही इस असार संसार को छोड़कर दीक्षित हो जाऊं। उस समय भगवान् चम्पा के पूर्णभद्र उद्यान में विराजमान थे। वीतभयपुर और चम्पा में / सात सौ कोस का अन्तर था, पर करुणासागर भक्तवत्सल भगवान् महावीर ने अपने भक्त की कामना पूर्ण करने के लिये चम्पा से प्रस्थान कर दिया और धीरे-धीरे यात्रा करते हुए वे उदायन की नगरी में पधार गये / भगवान् के पधारने के शुभ समाचार पाकर उदायन आनन्द-विभोर हो उठे। बड़े समारोह के साथ राजा, रानी और कुमार सब भगवान् के चरणों में उपस्थित हुए। धर्म-कथा सुनी, भगवान् की कल्याण-कारिणी वाणी सुनकर उदायन को वैराग्य हो गया। अपना उत्तराधिकारी निश्चित करने के लिये वह वापस महलों में आया। शासन का सारा दायित्व अभीच कुमार को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org