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________________ 140 [अन्तकृद्दशा अतिमुक्त कुमार ने अपनी बात स्पष्ट करते हुया कहा कि धर्म के संबंध में मैं सर्वथा अनभिज्ञ हूँ ऐसी बात नहीं है / धर्म की पूर्ण परिभाषा मैं नहीं जानता तथापि कुछ न कुछ जानता अवश्य हूँ। मुझे नन्हा बालक समझकर ऐसा न मान लें कि धर्म-तत्त्व से मैं सर्वथा अपरिचित हूँ। मुझे इस बात का बोध है कि जो पैदा हुआ है, उसे एक दिन मरना है, जन्म के साथ मृत्यु का अनादि कालीन संबंध है। जन्म लेने वाले को एक दिन मृत्यु का ग्रास बनना ही पड़ता है / यह मैं जानता हूँ, पर मुझे यह नहीं पता कि कब ? कहाँ और कैसे ? कितने समय के अनन्तर मृत्यु का प्रहार सहन करना पड़ेगा? मैं यह नहीं समझता कि जोव किन कर्मबन्ध के कारणों से चारों गतियों में जन्म लेते हैं परन्तु मैं यह अवश्य जानता हूँ कि अपने किए हुए कर्मों के कारण ही जीव नरकादि गतियों में उत्पन्न होते हैं। अतिमुक्त कुमार के प्रस्तुत कथानक में अल्पज्ञ और सर्वज्ञ का स्पष्ट अन्तर परिलक्षित होता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त "कम्माययणेहि” शब्द का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है"कम्माययणेहि त्ति, कर्मणां ज्ञानावरणीयादीनामायतनानि आदानानि बंधहेतव इत्यर्थः / पाठान्तरेण "कम्मावयणेहि त्ति' तत्र कर्मापतनानि यैः कर्मापतति-आत्मनि संभवति, तानि तथा"- अर्थात् 'कर्म" शब्द ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय आदि कर्मों का संसूचक है और "प्रायतन" शब्द बंध के कारणों का परिचायक है। कहीं-कहीं 'कम्माययहिं" के स्थान पर "कम्मावयहि" ऐसा पाठान्तर भी उपलब्ध होता है। जिन कारणों से कर्म आत्म-सरोवर में गिरते हैं, प्रात्म-प्रदेशों से संबंधि हैं, उन्हें कर्मापतन कहते हैं। दोनों का प्राशय एक ही है। अतिमुक्त कुमार के जीवन संबंधी अंतगडसूत्र के इस वर्णन के अतिरिक्त भगवतीसूत्र के चतुर्थ उद्देशक में मुनि अतिमुक्त के जीवन की एक घटना का बड़ा सुन्दर विवेचन मिलता है / यहाँ आवश्यक होने से उसका उल्लेख किया जा रहा है तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतेवासी अइमुत्ते णाम कुमारसमणे पगइभद्दए, जाव-विणीए / तए णं से अइमुत्ते कुमारसमणे अण्णया कयाइं महावुट्ठिकार्यसि णिवयमाणंसि कक्खपडिग्गह-रयहरणमायाए बहिया संपट्ठिए विहाराए / तए णं अइमुत्त कुमारसमणे वायं वहमाणं पासइ, पासित्ता मट्टियाए पालि बंधई, बंधित्ता ‘णाविया मे णाविया मे' णावियो विव णावमयं पडिग्गहं उदगंसि कटु पव्वाहमाणे पव्वाहमाणे अभिरमई, तं च थेरा अदक्खु, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणु प्पियाणं अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे भगवं, से णं भंते ! अइमुत्त कुमारसमणे कइहिं भवग्गहणेहि सिज्झिहिइ, जाव अंतं करेहिइ ? . अज्जो ! त्ति समणे भगवं महावीरे ते थेरे एवं वयासी-एवं खलु अज्जो ! ममं अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे पगइभद्दए, जाव-विणीए, से गं अइमुत्ते कुमारसमणे इमेण चेव भवग्गहणणं सिज्झिहिइ जाव अंतं करिहिइ; तं मा णं अज्जो ! तुब्भे अइमुत्त कुमारसमणं हीलेह, निंदह, खिसह, गरहह, अवमण्णह, तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! अइमुत्त कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हह, अगिलाए उवगिरहह, अगिलाए भत्तणं पाणेणं विणाणं वेयावडियं करे / अइमुत्त णं कुमारसमणे अंतकरे चेव, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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