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________________ 136 ] { अन्तकृद्दशा इसके बाद भगवान् गौतम से अतिमुक्त कुमार इस प्रकार वोले'हे देवानुप्रिय ! आप कहाँ रहते हैं ?' भगवान् गौतम ने अतिमुक्त कुमार को उत्तर दिया 'देवानुप्रिय ! मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक भगवान् महावीर धर्म की आदि करने वाले, यावत् शाश्वत स्थान-मोक्ष के अभिलाषी इसी पोलासपुर नगर के बाहर श्रीवन उद्यान में मर्यादानुसार स्थान ग्रहण करके संयम एवं तप से प्रात्मा को भावित कर विचरते हैं / हम वहीं रहते हैं।' विवेचन--प्रस्तुत सूत्र के परिशोलन से यह स्पष्ट है कि वालक अतिमुक्त कुमार ने भगवान् गौतम से तीन प्रश्न किये थे। वे प्रश्न हैं—आप कौन हैं ? आप किस उद्देश्य से भ्रमण कर रहे हैं ? आप कहाँ पर रहते हैं ? प्रस्तुत सूत्र में इन तीनों के उत्तर भी दिये गये हैं। प्रथम प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् गौतम ने अपना परिचय देने के साथ-साथ साधु-जीवन की मर्यादा का वर्णन भी कर दिया है। प्रथम प्रश्न के उत्तर में गौतम स्वामी ने कहा-'हम श्रमण हैं, निर्गन्थ, ईर्यासमित एवं ब्रह्मचारी हैं।' वस्तुतः ये चारों शब्द साधु-मर्यादा के परिचायक हैं। उनकी व्याख्या इस प्रकार है-तपस्वी अथवा प्राणिमात्र के साथ समतामय समान व्यवहार करने वाले महापुरुष श्रमण कहलाते हैं / जो परिग्रह से रहित हैं अथवा जिनमें राग-द्वेष की ग्रन्थि न हो वे निर्ग्रन्थ है ईर्या-गमन संबंधी समितिविवेक अर्थात् आगे देखकर तथा सावधानी से चलना ईरियासमिति है। चतुर्थ महाव्रत ब्रह्मचर्य के परिपालक साधक को ब्रह्मचारी कहते हैं। दूसरे प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान् गौतम ने अतिमुक्त कुमार से कहा- “वत्स ! मैं भिक्षार्थ भ्रमण कर रहा हूँ।' तीसरे प्रश्न के उत्तर में गौतम स्वामी ने थीवन उद्यान में मेरा निवास है, ऐसा न कहकर श्रीवन उद्यान में परमात्मा महावीर के पास हमारा निवास है, ऐसा बताया। इसमें उनकी अपूर्व गुरुभक्ति झलकती है। विउलेणं............."साइमेणं--इस पद में विपुल शब्द के कई अर्थ पाए जाते हैं-प्रभूत, प्रचुर, विस्तीर्ण, विशाल, उत्तम, श्रेष्ठ ग्रादि / प्रस्तुत में 'उत्तम' अर्थ ग्रहण करना चाहिए। अतिमुक्त का गौतम के साथ वन्दनार्थ गमन १७–तए णं से अइमुत्ते कुमारे भगवं गोयम एवं वयासी"गच्छामि णं भंते ! अहं तुन्भेहि सद्धि समणं भगवं महावीरं पायवंदए।" "अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेहि।" तए णं से अइमुत्ते कुमार भगवया गोयमेणं सद्धि जेणेव समणे भगवं महावीर तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ जाव' पज्जुवास। 1. वर्ग 6, सूत्र 11. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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