________________ षष्ठ वर्ग] [126 ये सब यातनाएं शान्तिपूर्वक सहन करते थे। इसके अतिरिक्त उनको अन्न मिल जाता तो पानी नहीं मिलता था, कहीं पानी मिल गया तो अन्न नहीं मिलता था। यह सब कुछ होने पर भी अर्जुन मुनि कभी अशान्त दो दिनों के उपवास के पारणे में भी सन्तोषजनक भोजन न पाकर उन्होंने कभी ग्लानि अनुभव नहीं की। इस प्रकार के तप को सूत्रकार ने, 'तेणं' इस पद से ध्वनित किया है। ___'उदार' शब्द का अर्थ है-प्रधान / प्रधान सब से बड़े को कहते हैं / भूखा रहना आसान है, रसनेन्द्रिय पर नियंत्रण भी किया जा सकता है, भिक्षा द्वारा जीवन का निर्वाह करना भी संभव है पर लोगों से अपमानित होकर तथा मार-पीट सहन कर तपस्या की प्राराधना करते चले जाना बच्चों का खेल नहीं है। यह बड़ा कठिन का कठोर साधना है, इसी कारण सूत्रकार ने अर्जुनमुनि के तप को उदार अति सब से बड़ा कहा है / विपूल'—विशाल को कहते हैं। एक बार कष्ट सहन किया जा सकता है, दो या तीन बार कष्ट का सामना किया जा सकता है, परन्तु लगातार छह महीनों तक कष्टों की छाया तले रहना कितना कठिन कार्य है ? यह समझना कठिन नहीं है / जिधर जाम्रो उधर अपमान, जिस घर में प्रवेश करो वहाँ अनादर की वर्षा, सम्मान का कहीं चिह्न भी नहीं। ऐसी दशा में मन को शान्त रखना, कोध को निकट न आने देना बड़ा ही विलक्षण साहस है और बड़ी विकट तपस्या है, अपूर्व सहिष्णुता है। संभव है इसीलिये सूत्रकार ने अर्जुनमाली की तपःसाधना को विपुल-विशाल बड़ी कहा है। ____ 'प्रदत्त'--का अर्थ है-दिया हुआ / अर्जुनमाली जिस तप की साधना कर रहे थे, यह तप उन्होंने बिना किसी से पूछे अपने आप ही प्रारम्भ नहीं किया, प्रत्युत भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके प्रारम्भ किया था / अतएव सूत्रकार ने इस तप को प्रदत्त कहा है। 'प्रगहीत' का अर्थ है-ग्रहण किया हुआ / किसी भी व्रत ग्रहण करनेवाले व्यक्ति की मानसिक स्थिति एक जैसी नहीं रहती। किसी समय मन में श्रद्धा का अतिरेक होता है और किसी समय श्रद्धा कमजोर पड़ जाती है और किसी समय लोकलज्जा के कारण बिना श्रद्धा के ही व्रत का परिपालन किया जाता है। इन सब बातों को ध्यान में रखकर सूत्रकार ने मुनि द्वारा कृत तप को प्रगृहीत विशेषण से विशेषित किया है, जो उत्कृष्ट भावना से ग्रहण किया हुआ, इस अर्थ का बोधक है। अर्जुनमाली की आस्था संकट काल में शिथिल नहीं हुई, वे सुदृढ साधक बन कर साधना-जगत् में आए थे और अन्त तक सुदृढ साधक ही रहे / उन्होंने अपने मन को कभी डॉवाडोल नहीं होने दिया। यदि पयत्तणं का संस्कृत रूप प्रयत्नेन किया जाय तो उदार और विपुल ये दोनों प्रयत्न के विशेषण बन जाते हैं, तब इन शब्दों का अर्थ होगा प्रधान विशाल प्रयत्न से ग्रहण किया गया / तप करना साधारण बात नहीं है इसके लिये बड़े पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है / इसी महान् पुरुषार्थ को प्रधान विशाल प्रयत्न कहा गया है / "महानुभाग" शब्द प्रभावशाली अर्थ का बोधक है / जिस तप के प्रताप से अर्जुन मुनि ने जन्म-जन्मान्तर के कर्मों को नष्ट कर दिया, परम साध्य निर्वाण प्राप्त कर लिया, उसकी प्रभावगत महत्ता में क्या अाशंका हो सकती है ? अात्मा के साथ लगे हुए कर्म-मल को जलाने के लिये तप रूप अग्नि की नितान्त आवश्यकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org