SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 165
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 128 ] [ अन्तकृद्दशा 'प्रदीणे' त्यादि तत्रादीनः शोकाभावात् अविमना न शून्यचित्त: अकलुषो द्वेषवजितत्वात् अनाविल: जनाकुलो वा निःक्षोभत्वात् अविषादी कि मे जोवितेनेत्यादि चिन्तारहितः, अतएवापरितान्त:-अविश्रान्तो योगः-समाधिर्यस्य सः तथा स्वाथिकेनन्तत्त्वाच्चापरितान्तयोगी। इसका अर्थ इस प्रकार है मन में किसी प्रकार का शोक न होने से अर्जुन मुनि अदोन-दीनता से रहित थे, समाहित चित्त होने से अविमन थे, द्वष-रहित होने से मन में किसी प्रकार की कलुषता-मलिनता और आकुलता नहीं थी। क्षोभशून्य होने से मन में किसी प्रकार का विषाद-दुःख नहीं था / 'मेरा इस प्रकार के तिरस्कृत जीवन से क्या प्रयोजन है, ऐसी ग्लानि उनके मन में नहीं थी, अतएव वह निरन्तर समाधि में लीन थे / समाधि में सतत लगे रहने के कारण ही अर्जुन मुनि को अपरितान्तयोगी कहा गया है। अपरितान्त योग शब्द से स्वार्थ में 'इन' प्रत्यय लगा कर अपरितान्तयोगी शब्द बनता है। "बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तमाहारं पाहारेइ" का अर्थ है-जिस प्रकार सांप बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार पाहार को ग्रहण किया गया / इन पदों का अर्थ वृत्तिकार के शब्दों में इस प्रकार है-- "विलमिव पन्नगभूतेन प्रात्मना तमाहारमाहारयति-यथा भुजंगो बिलस्य पाव भागद्वयमसंस्पृशन् मध्यमार्गत एवात्मानं बिले प्रवेशयति तथा मुखस्य पार्श्वद्वयस्पर्शरहितमाहारं कण्ठनालाभिमुखं प्रवेश्याऽऽहारयतीति भावः / " अर्थात् जैसे सर्प बिल के दोनों भागों का स्पर्श किए बिना केवल बिल के मध्यभाग से ही बिल में प्रविष्ट होता है, उसी प्रकार अर्जुन मुनि मुख के दोनों भागों का स्पर्श किए बिना केवल मुख में आहार रख कर गले के नीचे उतार लेते हैं। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार बिल में प्रवेश करते समय सर्प अपने अंगों का उससे स्पर्श नहीं करता, बड़े संकोच से उसमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार किसी प्रकार के प्रास्वाद की अपेक्षा न करते हुए रागद्वष से रहित होकर मुख में जैसे स्पर्श ही नहीं हुआ हो, इस प्रकार से केवल क्षुधा की निवृत्ति के उद्देश्य से अर्जुन मुनि आहार सेवन करते हैं। इस कथन से इनकी रसविषयक मुर्छा के प्रात्यन्तिक अभाव का संसूचन किया गया है। संयमी व्यक्ति की उत्कृष्ट साधना रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना है। अर्जन मुनि ने इस साधना के रहस्य को भलीभांति समझ लिया था और उसे जीवन में उतार भी लिया था। तेणं अोरालेणं विउलेणं पयत्तणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं'-तेन पूर्वभणितेन उदारेण–प्रधानेन, विपुलेन-विशालेन भगवता दत्त न, प्रगृहीतेन उत्कृष्टभावतः स्वीकृतेन, महानुभागेन-महान् अनुभाग: प्रभावो यस्य, तेन तपःकर्मणा / ' यहाँ पर अर्जुनमुनि ने जो तप आराधन किया है उस तप की महत्ता को अभिव्यक्त किया गया है। प्रस्तुत पाठ में तपःकर्म विशेष्य है और उदार आदि उसके विशेषण हैं। इनकी अर्थविचारणा इस प्रकार है तेण–यह शब्द पूर्व प्रतिपादित तप की ओर संकेत करता है। अर्जुन मुनि के साधनाप्रकरण में बताया गया था कि अर्जुनमुनि जब नगर में भिक्षार्थ जाते थे तब उनको लोगों की ओर से बहुत बुरा-भला कहा जाता था, उनका अपमान किया जाता था, मार-पीट की जाती थी, तथापि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy