________________ षष्ठ वर्ग] [ 127 . बिल में सर्प सीधा ही प्रवेश करता है उस प्रकार राग-द्वेष भाव से रहित होकर उस आहार-पानी का वे सेवन करते। तत्पश्चात् किसी दिन श्रमण भगवान् महावीर राजगह नगर के उस गुणशील उद्यान से निकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। अर्जुन मुनि ने उस उदार, श्रेष्ठ, पवित्र भाव से ग्रहण किये गये, महालाभकारी, विपुल तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए पूरे छह मास श्रमण धर्म का पालन किया। इसके बाद आधे मास की संलेखना से अपनी प्रात्मा को भावित करके तीस भक्त के अनशन को पूर्ण कर जिस कार्य के लिये व्रत ग्रहण किया था उसको पूर्ण कर वे अर्जुन मुनि यावत् सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो गये। विवेचन–राजगृह नगर में भिक्षा के निमित्त घमते हए अर्जन मुनि को वहां की जनता के द्वारा कष्ट प्राप्त हुए, फिर भी वे अपनी साध-जनोचित वृत्ति में स्थिर रहे, मन से भी किसी पर द्वेष नहीं किया, प्रत्युत जो कुछ भी कष्ट प्राप्त हुआ, उसको समभाव में रहते हुए बड़ी शान्ति और धैर्य से सहन किया। इसी समभाव का यह सत्परिणाम हया कि वे समस्त कर्म-बंधनों का विच्छेद करके अपने अभीष्ट परम कल्याणस्वरूप निर्वाण को प्राप्त हुए। "अक्कोसंति, हीलंति, निदंति, खिसंति, गरिहंति, तज्जेति'-इन क्रियापदों का अर्थ इस प्रकार है-'अक्कोसंति'---कट वचनों से भर्त्सना करते हैं। भर्त्सना का अर्थ है-लानत मलामत, फटकार, बुरा भला कहना / 'हीलन्ति'-अनादर-अपमान करते हैं। 'निन्दन्ति'—निन्दा करते हैं, निन्दा का अर्थ है किसी के दोषों का वर्णन करना। "खिसंति'-खीजते हैं, मुझलाते हैं, कुढ़ते हैं, दुर्वचन कहकर क्रोधावेश में लाने का प्रयत्न करते हैं। 'गरिहंति'-दोषों को प्रकट करते हैं / 'तज्जेति' तर्जना करते हैं, डाँटते हैं, डपटते हैं, तर्जनी आदि अंगुलियों द्वारा भयोत्पन्न करने का प्रयत्न करते हैं / 'तालेंति'--लाठियों और पत्थरों आदि से मारते हैं। "सम्म सहति, सम्म खमति, तितिक्खइ, अहियासेति" इन पदों की व्याख्या करते हुए टीकाकार अभयदेव सूरि लिखते हैं सहते इत्यादीनि एकार्थानि पदानीति केचित् / अन्ये तु सहते भयाभावेन, क्षमते कोपाभावेन, तितिक्षते दैन्याभावेन, अधिसहते आधिक्येन सहते इति / ' अर्थात् कुछ प्राचार्य सहते आदि चारों पदों को एकार्थक मानते हैं, कुछ इनका अर्थभेद करते हुए कहते हैं-सहते-विना किसी भय से संकट सहन करते हैं / क्षमते-क्रोध से दूर रह कर शान्त रहते हैं। तितिक्षते-किसी प्रकार की दीनता दिखलाये बिना परिषहों को सहन करते हैं। अधिसहते-खूब सहन करते हैं। इन क्रियापदों से ध्वनित होता है कि अर्जन मनि की सहनशीलता समीचीन और आदर्श थी। जो सहनशीलता भय के कारण होती है, वह वास्तविक सहनशीलता नहीं है / जिस क्षमा में क्रोध का अंश विद्यमान है, हृदय में क्रोध छिपा हुआ है, उसे क्षमा नहीं कहा जा सकता और दीनतापूर्वक की गई तितिक्षा वास्तविक तितिक्षा नहीं कही जा सकती। आक्रोश आदि परिषहों के सहन करने में यदि अन्तःकरण में अंशतया भी कषायों का उदय हो जाता है, तो विकास के बदले यह आत्मा पतन की ओर प्रवृत्त हो जाता है / इसकी विशेष प्रतीति हेतु सूत्रकार ने—'अदीणे, अविमणे अकलुसे, अणाइले, अविसाई, अपरितंतजोगी' शब्दों का प्रयोग किया है / इन पदों की व्याख्या करते हुए प्राचार्य अभयदेव सूरि लिखते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org