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________________ 126 ] [अन्तकृद्दशा अडइ, अडित्ता रायगिहाम्रो नयराम्रो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे जाव [तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवो महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणाए पडिक्कमेइ, पडिक्कमेत्ता एसणमणेसणं पालोएइ, पालोएत्ता भत्तपाणं] पडिदंसेइ, पडिदंसेत्ता समणणं भगवया महावीरेणं अभणुण्णाए समाणे अमुच्छिए अगिद्धे अगढिए अणझोववण्णे बिलमिव पण्णगभूएणं प्रप्पाणेणं तमाहारं पाहारेइ / तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया रायगिहाम्रो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तए णं से अज्जणए प्रणगारे तेणं अोरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं प्रप्याणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अध्याणं भूसेइ, भूसेत्ता तीसं भत्ताई प्रणसणाए छेदेइ, छेदेत्ता जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे जाव' सिद्ध। उस समय अर्जुन मुनि को राजगृह नगर में उच्च-नीच-मध्यम कुलों में भिक्षार्थ घूमते हुए देखकर नगर के अनेक नागरिक-स्त्री, पुरुष, बाल, वृद्ध इस प्रकार कहते "इसने मेरे पिता को मारा है। इसने मेरी माता को मारा है / भाई को मारा है, बहन को मारा है, भार्या को मारा है, पुत्र को मारा है, कन्या को मारा है, पुत्रवधू को मारा है, एवं इसने मेरे अमुक स्वजन संबंधी या परिजन को मारा है। ऐसा कहकर कोई गाली देता, कोई हीलना करता, अनादर करता, निंदा करता, कोई जाति आदि का दोष बताकर गर्दा करता, कोई भय बताकर तर्जना करता और कोई थप्पड़, ई ट, पत्थर, लाठी आदि से ताड़ना करता। इस प्रकार उन बहुत से स्त्री-पुरुष, बच्चे, बूढे और जवानों से आक्रोश-गाली, [होलना, अनादर, निंदा, गर्दा सहते हुए], ताडित-तजित होते हुए भी वे अर्जुन मुनि उन पर मन से भी द्वष नहीं करते हुए उनके द्वारा दिये गये सभी परीषहों को समभावपूर्वक सहन करते हुए उन कष्टों को समभाव से झेल लेते एवं निर्जरा का लाभ समझते / सम्यग्ज्ञानपूर्वक उन सभी संकटों को सहन करते, क्षमा करते, तितिक्षा रखते और उन कष्टों को भी लाभ का हेतु मानते हुए राजगृह नगर के छोटे, बड़े एवं मध्यम कुलों में भिक्षा हेतु भ्रमण करते हुए अर्जुन मुनि को कभी भोजन मिलता तो पानी नहीं मिलता और पानी मिलता तो भोजन नहीं मिलता। वैसी स्थिति में जो भी और जैसा भी अल्प स्वल्प मात्रा में प्रासुक भोजन उन्हें मिलता उसे वे सर्वथा अदीन, अविमन, अकलुष, अमलिन, प्राकुल-व्याकुलता रहित अखेद-भाव से ग्रहण करते, थकान अनुभव नहीं करते। इस प्रकार वे भिक्षार्थ भ्रमण करते / भ्रमण करके वे राजगृह नगर से निकलते और गुणशील उद्यान में, जहां श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ पाते और वहाँ आकर भगवान् से न अति दूर न अति निकट से उपस्थित होकर गमनागमन सम्बन्धी प्रतिक्रमण करते, भिक्षा में लगे हुए दोषों की आलोचना करते और फिर भिक्षा में मिले हुए आहार-पानी को प्रभ महावीर को दिखाते / दिखाकर उनकी आज्ञा पाकर मूर्छा रहित, गृद्धि रहित, राग रहित और आसक्ति रहित; जिस प्रकार 1. वर्ग 5. सूत्र 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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