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________________ षष्ठ वर्ग ] [ 125 जावज्जोवाए छठेंछठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावमाणस्स विहरित्तए ति कटु अयमेयारूवं अभिग्गहं प्रोगिण्हइ, प्रोगिछिहत्ता जावज्जीवाए जाव' विहर। तए णं से अज्जुणए अणगारे छटुक्खमणपारणयंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, जावर अडइ। अर्जुनमाली श्रमण भगवान् महावीर के पास धर्मोपदेश सुनकर एवं धारण कर अत्यन्त प्रसन्न एवं सन्तुष्ट हुअा और प्रभु महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा कर, वंदन-नमस्कार करके इस प्रकार बोला—"भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, रुचि करता हूं, यावत् आपके चरणों में प्रव्रज्या लेना चाहता हूं। भगवान् महावीर ने कहा- "देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे, वैसा करो।" तब अर्जुनमाली ने ईशानकोण में जाकर स्वयं ही पंचमौष्टिक लुचन किया, लुचन करके वे अनगार हो गये / संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। इसके पश्चात् अर्जुन मुनि ने जिस दिन मुडित हो प्रव्रज्या ग्रहण की, उसी दिन श्रमण भगवान् महावीर को वंदना-नमस्कार करके इस प्रकार का अभिग्रह धारण कियानिरंतर बेले-बेले की तपस्या से आजीवन आत्मा को भावित करते हुए विचरूंगा।" ऐसा अभिग्रह जीवन भर के लिये स्वीकार कर अर्जुन मुनि विचरने लगे। - इसके पश्चात् अर्जुन मुनि बेले की तपस्या के पारणे के दिन प्रथम प्रहर में स्वाध्याय और दूसरे प्रहर में ध्यान करते / फिर तीसरे प्रहर में राजगृह नगर में भिक्षार्थ भ्रमण करते / परोषह-सहन और सिद्धि १४–तए णं तं अज्जुणयं अणगारं रायगिहे नयरे उच्च जाव [नीय-मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए] अडमाणं बहवे इत्थीयो य पुरिसा य डहरा य महल्ला य जुवाणा य एवं वयासी tum. ___ "इमेण मे पिता मारिए / इमेण मे माता मारिया / इमेण मे भाया भगिणी भज्जा पुत्ते धूया सुण्हा मारिया। इमेण मे अण्णयरे सयण-संबंधि-परियणे मारिए त्ति कटु अप्पेगइया अक्कोसंति, अप्पेगइमा होलंति निदंति खिसंति गरिहंति तज्जंति तालेति / " तए णं से अज्जुणए अणगारे तेहिं बहूहि इत्थीहि य पुरिसेहि य डहरेहि य महल्लेहि य जवाणएहिय प्रायोसिज्जमाणे (प्राकोज्जमाणे) जाव [होलेमाणे, निदेमाणे, खि तज्जेज्जमाणे] तालेज्जमाणे तेसि मणसा वि अप्पउस्समाणे सम्म सहइ सम्म खमइ सम्म तितिक्खइ सम्म अहियासेइ, सम्म सहमाणे सम्म खममाणे सम्म तितिक्खमाणे सम्म अहियासेमाणे रायगिहे नयरे उच्च-णीय-मज्झिय-कुलाइं अडमाणे जइ भत्तं लभइ तो पाणं न लभइ, अह पाणं लभइ तो भत्तं न लम। तए णं से प्रज्जुणए अणगारे अदोणे अविमणे अकलुसे प्रणाइले अविसादी अपरितंतजोगी 1. वर्ग 3, सूत्र 2. 2. वर्म 3, सूत्र 6. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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