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________________ 124 ] [ अन्तकृद्दशा है भंते ! यही सत्य है भंते ! निःसंदेह ऐसा ही है भंते ! यही इष्ट है भंते ! यही स्वीकृत है भंते ! यही वांछित-गृहीत है भंते ! जैसा कि आप यह कह रहे हैं'–यों अप्रतिकूल बनकर पर्युपासना करना / मानसिकी उपासना अर्थात्-अति संवेग (उत्साह या मुमुक्षु भाव) अपने में उत्पन्न करके, धर्म के अनुराग में तीव्रता से अनुरक्त होना। उस समय श्रमण भगवान महावीर ने सुदर्शन श्रमणोपासक, अर्जुनमाली और उस विशाल सभा के सम्मुख धर्मकथा कही। सूदर्शन धर्मकथा सुनकर अपने घर लौट गया। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि मुद्गरपाणि यक्ष द्वारा होने वाले उपद्रव के समाप्त होने पर सुदर्शन ने अपने आमरण अनशन को समाप्त कर दिया। अनशन समाप्त करने के अनन्तर सेठ सुदर्शन ने बड़ी गंभीरता एवं दूरदर्शिता से काम लिया। वे अर्जुनमाली को मूच्छित दशा में देखकर भयभीत नहीं हुए और उन्होंने वहां से जाने का भी प्रयत्न नहीं किया, प्रत्युत वे वहाँ बड़ी शान्ति के साथ बैठे रहे / कारण स्पष्ट है। उनका हृदय दयालु था, सहानुभूतिपूर्ण था / अर्जुनमाली को अचेत दशा में छोड़कर वे जाना नहीं चाहते थे। उनका विचार था कि अर्जुनमाली अब परवशता से उन्मुक्त हो गया है, अतः इसकी देखभाल करना तथा इसका मार्गदर्शन करना मेरा कर्तव्य है। इसी कर्तव्यपालन की बुद्धि से उन्होंने वहाँ से प्रस्थान नहीं किया। अर्जुनमाली अन्तर्मुहूर्त तक बेसुध पड़ा रहा, "मुहुत्त तरेणं-मुहूर्तान्तरेण-स्तोककालेन"मुहूर्त शब्द का अर्थ है-४८ मिनिट / दो घड़ियों को मुहूर्त कहते हैं और दो घड़ी से न्यून काल को अन्तर्मुहूर्त कहा जाता है। सूत्रकार के कहने का प्राशय यह है कि अर्जुनमाली के शरीर से जब यक्ष निकल कर चला गया, उसके अनन्तर अर्जुनमाली धड़ाम से भूमितल पर गिर पड़ा और कुछ समय तक बेहोश पड़ा रहा / उसके अनन्तर उसे होश आया। सचेत होने पर अर्जुनमाली ने सामने उपस्थित सुदर्शन को देख उनका परिचय जानने के साथ कुछ संवाद किया और सेठ सुदर्शन के साथ गुणशिलक उद्यान में भगवान् महावीर के चरणों में पहुँच गया। अर्जुन की प्रव्रज्या १३–तए णं से अज्जुणए मालागारे समणस्स मगवनो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुठे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी—'सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं जाव' अब्भुठेमि गंभंते ! निग्गंथं पावयणं / ' 'प्रहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेहि / ' तए णं से अज्जुणए मालागारे उत्तरपुरस्थिमं दिसोभागं प्रवक्कमइ, प्रवक्कमित्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जाब विहरइ / तए णं से अज्जुणए अणगारे जं चेव दिवसं मुडे जाव पव्वइए तं चेव दिवसं समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं ओगेण्हइ-कप्पइ मे 1.-2. वर्ग 3, सूत्र 18. 3. वर्ग 5, सूत्र 2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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