________________ 122] [अन्तकृद्दशा उपसर्ग-निवारण ११-तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे सुदंसणं समणोवासयं सवप्रो समंता परिघोलेमाणे परिघोलेमाणे जाहे नो चेव णं संचाएइ सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपठित्तए, ताहे सुदंसणस्स समणोवासयस्स पुरनो सपक्खि सपडिदिसि ठिच्चा सुदंसणं समणोवासयं प्रणिमिसाए दिट्ठीए सुचिर निरिक्खइ, निरिक्खित्ता प्रज्जुणयस्स मालागारस्स सरीर विष्पजहइ,विष्पजहिता तं पलसहस्सणिप्फण्णं अनोमयं मोग्गर गहाय जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। तए णं से अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा जखेणं विप्पमुक्के समाणे 'धस' त्ति धरणियलंसि सव्वंगेहिं निवडिए। तए णं से सुदंसणे समणोवासए 'निरुवसम्ग' मित्ति कटु पडिमं पारेइ / मुद्गरपाणि यक्ष सुदर्शन श्रावक के चारों ओर घूमता रहा और जब उसको अपने तेज से पराजित नहीं कर सका तब सुदर्शन श्रमणोपासक के सामने आकर खड़ा हो गया और अनिमेष दृष्टि से बहुत देर तक उसे देखता रहा / इसके बाद उस मुद्गरपाणि यक्ष ने अर्जुन माली के शरीर को त्याग दिया और उस हजार पल भार वाले लोहमय मुद्गर को लेकर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा में चला गया। मुद्गरपाणि यक्ष से मुक्त होते ही अर्जुन मालाकार 'धस्' इस प्रकार के शब्द के साथ भूमि पर गिर पड़ा। तब सुदर्शन श्रमणोपासक ने अपने को उपसर्ग रहित हुआ जानकर अपनी प्रतिज्ञा का पारण किया और अपना ध्यान खोला। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में यह दर्शाया गया है कि सेठ सुदर्शन को देखकर अर्जुन माली ने अपना मुद्गर उछाला तो सही पर वह आकाश में अधर ही रह गया। सुदर्शन की आत्म-शक्ति की तेजस्विता के कारण वह किसी भी प्रकार से प्रत्याघात नहीं कर पाया। सूत्रकार ने इस हेतु"तेजसा समभिपडित्तए" पद का प्रयोग किया है। मुद्गरपाणि यक्ष ने सुदर्शन पर आक्रमण किया, परंतु उनकी आध्यात्मिक तेजस्विता के कारण आघात नहीं कर पाया। वह स्वयं तेजोविहीन हो गया। सुदर्शन के असाधारण तेज से पराभूत मुद्गरपाणि यक्ष अर्जुन माली के शरीर में से भाग गया और अर्जन माली भूमि पर गिर पड़ा। तब सुदर्शन ने "संकट टल गया" यह समझ कर अपना व्रत समाप्त कर दिया। सुदर्शन और अर्जुन को भगवत्पर्युपासना १२–तए णं से अज्जुणए मालागारे तत्तो मुहत्तंतरणं पासत्थे समाणे उठेइ, उठेत्ता सुदंसणं समणोवासयं एवं वयासो "तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! के कहि वा संपत्थिया ? तए णं से सुदंसणे समणोवासए अज्जुणयं मालागारं एवं बयासी "एवं खलु देवाणुप्पिया! अहं सुदंसणे नामं समणोवासए-अभिगयजीवाजीवे गुणसिलए चेइए समणं भगवं महावीरं वंदए संपत्थिए।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org