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________________ षष्ठ वर्ग] [121 मैंने पहले श्रमण भगवान् महावीर से स्थूल प्राणातिपात का आजीवन त्याग (प्रत्याख्यान) किया, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान का त्याग किया स्वदारसंतोष और इच्छापरिमाण रूप व्रत जोवन भर के लिये ग्रहण किया है। अब उन्हीं भगवान महावीर स्वामी की साक्षी से प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथन और संपूर्ण-परिग्रह का सर्वथा आजीवन त्याग करता है। मैं सर्वथा क्रोध. [म माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, परपरिवाद, अरति-रति, मायामषा और मिथ्यादर्शन शल्य तक के समस्त (18) पापों का भी आजीवन त्याग करता हूँ। सब प्रकार का अशन, पान, खादिम और स्वादिम इन चारों प्रकार के आहार का भी त्याग करता हूँ। यदि मैं इस आसन्नमृत्यु उपसर्ग से बच गया तो इस त्याग का पारणा करके आहारादि ग्रहण करूगा / यदि इस उपसर्ग से मुक्त न होऊं तो मुझे इस प्रकार का संपूर्ण त्याग यावज्जीवन हो। ऐसा निश्चय करके सुदर्शन सेठ ने उपर्युक्त प्रकार से सागारी पडिमा अनशन व्रत धारण कर लिया। इधर वह मुद्गरपाणि यक्ष उस हजार पल के लोहमय मुद्गर को घुमाता हुआ जहाँ सुदर्शन श्रमणोपासक था वहाँ आया / परन्तु सुदर्शन श्रमणोपासक को अपने तेज से अभिभूत नहीं कर सका अर्थात् उसे किसी प्रकार से कष्ट नहीं पहुंचा सका। विवेचन श्रेष्ठी सुदर्शन को गुणशीलक उद्यान की पोर जाते देखकर मुद्गरपाणि यक्ष क्रोध के मारे दाँत पीसते हुए उसे मारने के लिये मुद्गर उछालता हुअा अाता है, पर यक्ष को देख सुदर्शन सर्वथा शान्त और निर्भय रहते हैं। सागारी संथारा ग्रहण करते हैं। इस में वे सर्वथा क्रोध मान यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का त्याग करते हैं। __यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि श्रमणोपासक के जो बारह व्रत हैं वे सम्यकत्व पूर्वक ही ग्रहण किये जाते हैं, उसमें मिथ्यात्व का परित्याग स्वतः ही हो जाता है। तो फिर सागार-प्रतिमा (सागारी संथारा) ग्रहण करते समय सुदर्शन ने मिथ्यात्व का जो परित्याग किया है, इसकी उपपत्ति कैसे होगी? श्रावक-धर्म को धारण कर लेने के अनन्तर मिथ्यात्व के परित्याग करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। उत्तर में निवेदन है कि यद्ययि व्रतधारी श्रावक के लिये मिथ्यात्व का परित्याग सवसे पहले करना होता है और मिथ्यात्व के परिहार पर ही सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है, तथापि देश विरति श्रावक का जो त्याग है, वह आंशिक है, सर्वतः नहीं है / मिथ्यादर्शन के देश-शंका, सर्वशंका आदि अनेकों उपभेद हैं। उन सबका सर्वथा परित्याग करना ही यहाँ पर मिथ्यादर्शन शल्य के त्याग का लक्ष्य है। भाव यह है कि देशविरति धर्म के अंगीकार में लेश मात्र रहे हुए शंका आदि दोषों का भी उक्त प्रतिज्ञा में परित्याग कर दिया गया है / "सागारं पडिमं पडिवज्जइ"-यहाँ पठित 'सागार' शब्द का अर्थ है—अपवाद युक्त, छुट सहित / यहाँ प्रतिमा-संथारा आमरण अनशन का नाम है। 'प्रतिपद्यते' यह क्रियापद स्वीकार करने के अर्थ में प्रयुक्त है। छूट रख कर जो प्रतिज्ञा की जाती है उसे सागार-प्रतिमा कहते हैं। कोई व्यक्ति प्रतिज्ञा करते समय उसमें जब किसी वस्तु या समय विशेष की छूट रख लेता है और "यह काम हो गया तो मैं अनशन खोल लूगा / यदि काम न बना तो मैं अपना अनशन नहीं खोलूगा, उसे लगातार चलाऊंगा" इस प्रकार का संकल्प करके यदि कोई नियम लिया जाता है तो उस नियम को सागार-प्रतिमा कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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