________________ 120 ] [अन्तकृद्दशा है-इस नगर में आए हुए ‘इह पत्त" का अर्थ है इस उद्यान में आए हुए तथा 'इह समोसढं' का अर्थ है—साधुनों के योग्य स्थान पर ठहरे हुए। सुदर्शन को अर्जुन द्वारा उपसर्ग १०–तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे सुदंसणं समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीईवयमाणंवीईवयमाणं पासइ, पासित्ता प्रासुरुत्ते रुठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तं पलसहस्सणिष्फण्णं प्रमोमयं मोग्गर उल्लालेमाणे-उल्लालेमाणे जेणेव सुदंसणे समणोवासए तेगेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं से सदसणे समणोवासए मोग्गरपाणि जक्खं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता अभीए प्रतत्थे अणुविग्गे अक्खुभिए अनलिए असंभंते क्त्यंतेणं भूमि पमज्जइ, पमज्जित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावतं मत्थए अंजलि कटु एवं वयासो "नमोत्थु णं अरहताणं जाव' संपत्ताणं / नमोत्थ णं समणस्स भगवनो महावीरस्स प्राइगरस्स तित्थयरस्स जाव संपाविउकामस्स / पुदिव पिणं मए समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए, थलाए मुसावाए, थलाए अदिण्णादाणे सदारसंतोसे कए जावज्जीवाए, इच्छापरिमाणे कए जावज्जीवाए / तं इदाणि पिणं तस्सेव अंतियं सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जावज्जीवाए, मुसावायं प्रदत्तादाणं मेहणं परिग्गहं पच्चक्खामि जाधज्जीवाए, सव्वं कोहं जाव [माणं मायं लोहं पेज्जं दोसं कलहं अब्भक्खाणं पेसण्णं परपरिवायं अरइरई मायामोसं] मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। जइ णं एत्तो उवसग्गाओ मुच्चिस्सामि तो मे कप्पइ पारित्तए / अह णं एत्तो उवसांगाप्रो न मुच्चिस्सामि 'तो मे तहा' पच्चक्खाए चेव त्ति कटु सागार पडिम पडिवज्जइ। तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे तं पलसहस्सणिप्फण्णं अशोमयं मोग्गर उल्लालेमाणेउल्लालेमाणे जेणेव सुदंसणे समणोवासए तेणेव उवागए। नो चेव णं संचाएइ सुदंसणं समणोवासयं तेयसा समभिपडित्तए। १०--तब उस मुद्गरपाणि यक्ष ने सुदर्शन श्रमणोपासक को समीप से ही जाते हुए देखा। देखकर वह ऋद्ध हुअा, रुष्ट हुआ, कुपित हुअा, कोपातिरेक से भीषण बना हुआ, क्रोध की ज्वाला दांत पीसता हा वह हजार पल भारवाले लोहे के मुदगर को घमाते-घमाते जहाँ सुदर्शन श्रमणोपासक था, उस ओर आने लगा / उस समय क्रुद्ध मुद्गरपाणि यक्ष को अपनी ओर प्राता देखकर सुदर्शन श्रमणोपासक मृत्यु की संभावना को जानकर भी किचित् भी भय, त्रास, उद्वेग अथवा क्षोभ को प्राप्त नहीं हुआ / उसका हृदय तनिक भी विचलित अथवा भयाक्रान्त नहीं नहीं हया / उसने निर्भय होकर अपने वस्त्र के अंचल से भूमि का प्रमार्जन किया। फिर पूर्व दिशा को ओर मुंह करके बैठ गया ! बैठकर बाएं घुटने को ऊंचा किया और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलिपुट रखा / इसके बाद इस प्रकार बोला मैं उन सभी अरिहंत भगवंतों को, जो अतीतकाल में मोक्ष पधार गये हैं, एवं धर्म के प्रादिकर्ता तीर्थकर श्रमण भगवान् महावीर को जो भविष्य में मोक्ष पधारने वाले हैं, नमस्कार करता हूँ।" 1. वर्ग 1. सूत्र 2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org