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________________ 114 ] [अन्तकृद्दशा उस राजगह नगर में 'ललिता' नाम की एक गोष्ठी (मित्रमंडली) थी। वह (उसके सदस्य) धन-धान्यादि से सम्पन्न थी तथा बह बहुतों से भी पराभव को प्राप्त नहीं हो पाती थी। किसी समय राजा का कोई अभीष्ट-कार्य संपादन करने के कारण राजा ने उस मित्र-मंडली पर प्रसन्न होकर अभयदान दे दिया था कि वह अपनी इच्छानुसार कोई भी कार्य करने में स्वतन्त्र है। राज्य की ओर से उसे पूरा संरक्षण था, इस कारण यह गोष्ठी बहुत उच्छृखल और स्वच्छन्द बन गई। एक दिन राजगृह नगर में एक उत्सव मनाने की घोषणा हुई। इस पर अर्जुनमाली ने अनुमान किया कि कल इस उत्सव के अवसर पर बहुत अधिक फूलों की मांग होगी। इसलिये उस दिन वह प्रातःकाल में जल्दी ही उठा और बांस की छबड़ी लेकर अपनी पत्नी बन्धुमती के साथ जल्दी घर से निकला। निकलकर नगर में होता हया अपनी फलवाडी में पहुंचा और अपनी पत्नी के साथ फलों को चन-चन कर एकत्रित करने लगा। उस समय पूर्वोक्त 'ललिता" गोष्ठी के छह गोष्ठिक पुरुष मुद्गरपाणि यक्ष के यक्षायतन में आकर आमोद-प्रमोद करने लगे। ४-तए णं अज्जुणए मालागारे बंधुमईए भारियाए सद्धि पुप्फुच्चयं करेइ, (पत्थियं भरेइ), मरेत्ता अग्गाई वराइं पुष्फाई गहाय जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ / तए णं ते छ गोठिल्ला पुरिसा अज्जुणयं मालागारं बंधुमईए भारियाए सद्धि एज्जमाणं पासंति, पासित्ता अण्णमण्णं एवं वयासी "एस णं देवाणुप्पिया! अज्जणए मालागारे बंधुमईए भारियाए सद्धि इहं हव्वमागच्छइ / तं सेयं खलु देवाणुपिया! अम्हं प्रज्जुणयं मालागारं प्रवप्रोडय-बंधणयं करता बंधुमईए भारियाए सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणाणं विहरित्तए," त्ति कटु, एयमझें अण्णमण्णस्स पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता कवाडंतरसु निलुक्कंति, निच्चला, निष्फंदा, तुसिणीया, पच्छण्णा चिट्ठति / तए णं से प्रज्जुणए मालागारे बंधुमईए भारियाए सद्धि जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ, पालोए पणामं करेइ, महरिहं पुप्फच्चणं करेइ, जण्णुपायपडिए पणामं करेइ / तए पं छ गोठिल्ला पुरिसा दवदवस्स कवाडंतरेंहितो निग्गच्छंति निग्गच्छित्ता अज्जुणयं मालागारं गेण्हंति, गेण्हित्ता अवयोडय-बंधणं करेंति / बंधुमईए मालागारीए सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुजमाणा विहरंति। उधर अर्जुनमाली अपनी पत्नी बन्धुमती के साथ फूल-संग्रह करके उनमें से कुछ उत्तम फूल छांटकर उनसे नित्य-नियम के अनुसार मुद्गरपाणि यक्ष की पूजा करने के लिये यक्षायतन की ओर चला / उन छह गोष्ठिक पुरुषों ने अर्जुनमाली को बन्धुमती भार्या के साथ यक्षायतन की ओर पाते देखा / देखकर परस्पर विचार करके निश्चय किया--"अर्जुनमाली अपनी बन्धुमती भार्या के साथ इधर ही पा रहा है / हम लोगों के लिये यह उत्तम अबसर है कि अर्जुनमाली को तो औंधी मुश्कियों (दोनों हाथों को पीठ पीछे) से बलपूर्वक बांधकर एक ओर पटक दें और बन्धुमती के साथ खूब काम क्रीडा करें।" यह निश्चय करके वे छहों उस यक्षायतन के किवाड़ों के पीछे छिप कर निश्चल खड़े हो गये और उन दोनों के यक्षायतन के भीतर प्रविष्ट होने की श्वास रोककर प्रतीक्षा करने लगे। इधर अर्जुनमाली अपनी बन्धुमती भार्या के साथ यक्षायतन में प्रविष्ट हुया और यक्ष पर दृष्टि पड़ते ही उसे प्रणाम किया। फिर चुने हुए उत्तमोत्तम फूल उस पर चढ़ाकर दोनों घुटने भूमि पर टेककर प्रणाम किया। उसी समय शीघ्रता से उन छह गोष्ठिक पुरुषों ने किवाड़ों के पीछे से निकल Jain'Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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