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________________ पप्ठ वर्ग ] [113 वह अर्जुनमाली बचपन से ही मुद्गरपाणि यक्ष का उपासक था / प्रतिदिन बांस की छबड़ी लेकर बह राजगृह नगर के बाहर स्थित अपनी उस फूलवाडी में जाता था और फूलों को चुन-चुन कत्रित करता था। फिर उन फलों में से उत्तम-उत्तम फलों को छांटकर उन्हें उस मुदगरपाणि यक्ष के समक्ष चढ़ाता था। इस प्रकार वह उत्तमोत्तम फूलों से उस यक्ष की पूजा-अर्चना करता और भूमि पर दोनों घुटने टेककर उसे प्रणाम करता। इसके बाद राजमार्ग के किनारे बाजार में बैठकर उन फूलों को बेचकर अपनी आजीविका उपार्जन किया करता था। विवेचन-इस सूत्र से छठे वर्ग के तृतीय अध्ययन का कथानक प्रारंभ होता है। इस अध्ययन का नाम है "मोग्गरपाणी।" वस्तुतः इस अध्ययन का पात्र है अर्जुनमाली / मुदगरपाणि एक यक्ष है जो अपने सेवक अर्जुनमाली के जीवन में एक बहुत बड़ा तूफान लाता है। परन्तु उसी नगर के निवासी सुदर्शन नाम के एक श्रावक के सम्पके में तूफान शांत होता है / इस अध्याय में वर्णित यक्ष का नाम मुद्गरपाणि इस कारण है कि उसके पाणि अर्थात् हाथ में मुद्गर नाम का एक अस्त्र विशेष था। इसी कारण वह इस नाम से प्रसिद्ध था। मुद्गरपाणि का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं--"पलसहस्सणिप्पण्णं' अर्थात् जिसका निर्माण हजार पलों से किया गया है। पल शब्द का अर्थ इस प्रकार है-दो कर्ष प्रमाण (कर्ष 10 मासे का होता है)। कर्षाभ्यां पलं प्रोक्तं, कर्षः स्याद्दशमाषक: / (शाङ्गधर संहिता)। इस प्रकार 20 मासे का एक पल होता है। अन्य कोषों में लिखा है-पल अर्थात् एक बहुत छोटी तोल, चार तोला (प्राकृतशब्दमहार्णव-पाइयसद्दमहण्णवो)। एक तोल (मान विशेष-अर्द्धमागधी कोष) अस्तु चार तोले का यदि एक पल माना जाय तो यक्ष के हाथ में 1 मन 10 सेर का विशाल मुद्गर था। अन्य प्रकार से इसकी व्याख्या यों है--आज कल के पांच रुपयों के भार बराबर एक पल होता है, 16 पलों का एक सेर होता है, इस तरह 1000 पल के साढे बासठ (62 / / ) सेर होते हैं। इन से बने हुए को 'पलसहस्र-निष्पन्न' कहते हैं। पच्छिपिडगाई' इस पद में 'पच्छि' और 'पिटक' ये दो शब्द हैं। पच्छी देशीय भाषा का शब्द है जो छोटी टोकरी के लिये प्रयुक्त होता है। पिटक शब्द भी पिटारी का बोधक है। दो समानार्थक पदों का प्रयोग अनेकविध पिटारियों अर्थात् टोकरियों का बोधक है। भाव यह है कि अर्जुनमाली अनेक प्रकार की टोकरियाँ लेकर पुष्पवाटिका में जाया करता था। गोष्ठिक पुरुषों का अनाचार ३----तत्थ णं रायगिहे नयरे ललिया नाम गोट्ठी परिवसइ-अड्डा जाव अपरिभूया जंकयसुकया यावि होत्था / तए णं रायगिहे नयरे अण्णया कयाइ पमोदे घुठे यावि होत्था। तए णं से अज्जुणए मालागारे कल्लं पभूयतराएहि पुष्फेहि कज्ज इति कट्ट पच्चूसकालसमयंसि बंधुमईए भारियाए सद्धि पच्छिपिडयाई गेण्हइ, गेण्हित्ता सयानो गिहाम्रो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्वमित्ता रायगिहं नयरं मझमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुप्फारामे तेणेव उवागरछइ, उवागच्छित्ता बंधुमईए भारियाए सद्धि पुष्फच्चयं करेइ / तए णं तोसे ललियाए गोठीए छ गोठिल्ला पुरिसा जेणेव मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागया अमिरममाणा चिट्ठति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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