________________ 102 ] [ अन्तकृद्दशा लिया। वासुदेव कृष्ण ने प्राग शान्त करने के अनेकों यत्न किए, पर कर्मों का ऐसा प्रकोप चल रहा था कि आग पर डाला जानेवाला पानी तेल का काम कर रहा था / पानी डालने से आग शान्त होती है, पर उस समय ज्यों-ज्यों पानी डाला जाता था त्यों-त्यों अग्नि और अधिक भडकती थी। अग्नि की भीषण ज्वालाएँ मानों गगन को भी भस्म करने का यत्न कर रही थीं। कृष्ण वासुदेव, बलराम, सब निराश थे, इनके देखते देखते द्वारका जल गई, वे उसे बचा नहीं सके। द्वारका के दग्ध हो जाने पर कृष्ण वासुदेव और बलराम वहां से जाने की तैयारी करने लगे। इसी बात को सूत्रकार ने "सुरदीवायणकोवनिदड्ढाए" इस पद से अभिव्यक्त किया है। "अम्मा-पिइ-नियग-विप्पहूणे”—अम्बापित-निजकविप्रहीण:-मातृपितृभ्यां स्वजनेभ्यश्च विहीनः-अर्थात् माता-पिता और अपने सम्बन्धियों से रहित / कथाकारों का कहना है कि जब द्वारका नगरी जल रही थी तब कृष्ण वासुदेव और उनके बड़े भाई बलराम दोनों आग बुझाने की चेष्टा कर रहे थे, पर जब ये सफल नहीं हुए तव अपने महलों में पहुंचे और अपने माता-पिता को बचाने का प्रयत्न करने लगे। बड़ी कठिनाई से माता-पिता को महल में से निकालने में सफल हुए / इनका विचार था कि माता-पिता को रथ पर बैठाकर किसी सुरक्षित जगह पर पहुंचा दिया जाए / अपने विचार की पूर्ति के लिये वासुदेव श्रीकृष्ण जब अश्वशाला में पहुँचे तो देखते हैं, अश्वशाला जलकर नष्ट हो चुकी है। वे वहां से चले, रथशाला में पाए / रथशाला को आग लगी हुई थी, किन्तु एक रथ उन्हें सुरक्षित दिखाई दिया / वे तत्काल उसी को बाहर ले आये, उस पर माता-पिता को बैठाया। घोड़ों के स्थान पर दोनों भाई जुत गए पर जैसे ही सिंहद्वार को पार करने लगे और रथ का जूया और दोनों भाई द्वार से बाहर निकले ही थे कि तत्काल द्वार का ऊपरी भाग टूट पड़ा और माता-पिता उसी के नीचे दब गए / उनका देहान्त हो गया / वासुदेव कृष्ण तथा बलराम से यह मार्मिक भयंकर दृश्य देखा नहीं गया। वे माता-पिता के वियोग से अधीर हो उठे / जैसे-तैसे उन्होंने अपने मन को संभाला, माता पिता तथा अन्य सम्बन्धियों के वियोग से उत्पन्न महान संताप को धैर्यपूर्वक सहन किया। माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धियों की इसी विहीनता को सूत्रकार ने "अम्मापिइ-नियग-विप्पहूणे" इस पद से संसूचित किया है। * "रामेण बलदेवेण सद्धि" --का अर्थ है-राम बलदेव के साथ / महाराज वसुदेव की एक रानी का नाम रोहिणी था। रोहिणी ने एक पुण्यवान् तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। वह परम अभिराम सुन्दर था. इसलिए उसका नाम 'राम' रखा गया। आगे चलकर अत्यन्त बलवान् और पराक्रमी होने के कारण राम के साथ 'बल' विशेषण और जुड़ गया और वे राम, बलराम, बलभद्र और बल आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध हो गये। जैनशास्त्रों के अनुसार बलदेव एक पद विशेष भी है। प्रत्येक वासुदेव के बड़े भाई बलदेव कहलाते हैं, ये स्वर्ग या मोक्षगामी होते हैं। बलराम नौवें वलदेव थे / बलदेव और वासदेव का प्रेम अनुपम और अद्वितीय होता है। महाराज कृष्ण के बड़े भाई बलदेव राम को ही सूत्रकार ने 'रामेण बलदेवेण" इन पदों से व्यक्त किया है। "दाहिणबेलाए अभिमुहे जुहिठिल्लपामोक्खाणं", "पंचण्हं पांडवाणं पंडुरायपुत्ताणं पास पंडमहरं संपत्थिए" का अर्थ है-दक्षिणसमुद्र के किनारे पांडुराजा के पुत्र युधिष्ठिर आदि पांचों पांडवों के पास पाण्डु मथुरा की ओर चल दिये। द्वारका नगरी के दग्ध हो जाने पर कृष्ण बड़े चिन्तित थे। उन्होंने बलराम से कहा---औरों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org