________________ पंचम वर्ग] [ 101 भद्दिलपुर निवासी सेठ नाग के छह पुत्र, जो भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित हुए थे, वासुदेव कृष्ण के ममेरे भाई थे। गजसुकुमार तो वासुदेव कृष्ण के अनुज भाई ही थे। इस तरह महाराज कृष्ण के ये सात भाई भगवान् अरिष्टनेमि के पास जैन साधु बने थे। ___ जालिकुमार, मयालिकुमार, उपयालिकुमार, पुरुषषेणकुमार और वारिषेणकुमार—ये पांचों महाराज वसुदेव के पुत्र थे, अत: वासुदेव कृष्ण के भाई थे, इनकी माता धारिणी थी, राजकुमार सत्यनेमि तथा दृढ़नेमि ये दोनों राजकुमार वासुदेव कृष्ण के ताऊ के लड़के थे। प्रद्य म्नकुमार तथा शाम्बकुमार ये दोनों वासुदेव कृष्ण के पुत्र थे। राजकुमार अनिरुद्ध वासुदेव कृष्ण का पोता था। सभी राजकुमार भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में साधु बने थे। महारानी पद्मावती, गौरी, गान्धारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जांबवती, सत्यभामा, रुक्मिणी ये पाठों महाराज कृष्ण की रानियाँ थीं। मूलश्री तथा मूलदत्ता ये दोनों कृष्ण महाराज के पुत्र शाम्बकुमार की रानियाँ थीं। ये सब भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित होकर जैन साध्वी बन गई थीं। प्रस्तुत सूत्र के अनुसार वासुदेव कृष्ण अपने राजसेवकों द्वारा द्वारका नगरी के सभी प्रदेशों में एक उद्घोषणा कराते हैं / घोषणा में कहा जाता है कि द्वारका नगरी एक दिन द्वैपायन ऋषि द्वारा जला दी जायेगी, अतः जो भी व्यक्ति भगवान् अरिष्टनेमि के चरणों में दीक्षित होकर अपना कल्याण करना चाहे, उसे महाराज कृष्ण की आज्ञा है। किसी को पीछे वालों की चिन्ता हो तो उसे वह छोड़ देनी चाहिए, पीछे की सब व्यवस्था महाराज कृष्ण स्वयं करेंगे। इसके अतिरिक्त घोषणा में यह भी कहा गया था कि जो भी व्यक्ति साधु बन कर अपना कल्याण करना चाहे, इसके दीक्षासमारोह को सब व्यवस्था महाराज श्रीकृष्ण की ओर से होगी। यह घोषणा एक बार नहीं, तीनतीन बार की गई थी। ___ इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कृष्ण वासुदेव को जहां नरकगामी बतलाया गया है वहाँ उन्हें तीर्थकर बन जाने के अनन्तर मोक्षगामी बतला कर परम सम्मान भी प्रदान किया गया है। मदोन्मत्त यादवकुमारों से प्रताडित द्वैपायन ऋषि ने निदान कर लिया था कि यदि मेरी तपस्या का कोई फल हो तो मैं द्वारका नगरी को जला कर भस्म कर दू। निदानानुसार पायन ऋषि अग्निकुमार जाति के देव बने / इधर वह पूर्व वैर का स्मरण करके द्वारकादाह का अवसर देख रहा था, परन्तु प्रतिदिन की प्रायविल तपस्या के प्रभाव के सामने उसका कोई वश नहीं था। वह द्वारका नगरी को जलाने में असफल रहा, तथापि उसने प्रयत्न नहीं छोड़ा, लगातार बारह वर्षों तक उसका यह प्रयत्न चलता रहा / बारह वर्षों के बाद द्वारका के कुछ लोग सोचने लगेतपस्या करते-करते वर्षों व्यतीत हो गए हैं, अब अग्निकुमार हमारा क्या बिगाड़ सकता है ? इसके अतिरिक्त कुछ लोग यह भी सोच रहे थे कि द्वारका के सभी लोग तो आयंबिल कर ही रहे हैं, यदि हम लोग न भी करें तो इससे क्या अन्तर पड़ता है ? समय की बात समझिए कि द्वारका में एक दिन ऐसा आ गया जब किसी ने भी तप नहीं किया। व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण संकट-मोचक आचाम्ल तप से सभी विमुख हो गए / अग्निकुमार द्वैपायन ऋषि के लिये इससे बढ़कर और कौन सा अवसर हो सकता था ! उसने द्वारका को आग लगा दी। चारों ओर भयंकर शब्द होने लगे, जोर की आंधी चलने लगी, भूचाल से मकान धराशायी होने लगे, अग्नि ने सारी द्वारका को अपनी लपेट में ले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org