________________ 88] [अन्तकृद्दशा ममं सहोयरे कणीयसे भायर गयस कुमाले अणगारे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविए ति कट्ट सोमिलं माहणं पाहिं कड्डावेइ, कड्ढावेत्ता तं भूमि पाणिएणं अब्भोक्खावेइ, अभोक्खावेत्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए / सयं गिहं अणुप्पविट्ठ। उस समय सोमिल ब्राह्मण कृष्ण वासुदेव को सहसा सम्मुख देख कर भयभीत हुआ और जहाँ का तहाँ स्तम्भित खड़ा रह गया। वहीं खड़े-खड़े ही स्थितिभेद से अपना आयुष्य पूर्ण हो जाने से सर्वांग-शिथिल हो धड़ाम से भूमितल पर गिर पड़ा / उस समय कृष्ण वासुदेव सोमिल ब्राह्मण को गिरता हुआ देखते हैं और देखकर इस प्रकार बोलते हैं "अरे देवानुप्रियो ! यही वह मृत्यु की इच्छा करने वाला तथा लज्जा एवं शोभा से रहित सोमिल ब्राह्मण है, जिसने मेरे सहोदर छोटे भाई गजसुकुमाल मुनि को असमय में ही काल का ग्रास बना डाला।" ऐसा कहकर कृष्ण वासुदेव ने सोमिल ब्राह्मण के उस शव को चांडालों के द्वारा घसीटवा कर नगर के बाहर फिकवा दिया और उस शव के स्पर्श वाली भूमि को पानी से धुलवाया। उस भूमि को पानी से धुलवाकर कृष्ण वासुदेव अपने राजप्रासाद में पहुँचे और अपने आगार में प्रविष्ट हुए। निक्षेप ३०–एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया महावीर णं जाव' संपत्तेणं अट्ठमस्स अंगस्स अंतगडदसाणं तच्चस्स वग्गस्स अट्ठमझयणस्स भयमठे पण्णत्ते।। श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जंबू को सम्बोधित करते हुए कहते हैं हे जंबू ! यावत् मोक्ष-सम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने अन्तकृद्दशांग सूत्र के तृतीय वर्ग के अष्टम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है / 1. देखो प्रथम बर्ग, सूत्र 2. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org