________________ 86] [अन्तकृद्दशा गई हैं--बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता। मिथ्यात्वादि के निमित्त से ज्ञानावरणीय ग्रादि के रूप में परिणत होकर कर्म-पुद्गलों का प्रात्मा के साथ दूध-पानी की तरह मिल जाना बंध है / अबाधाकाल समाप्त होने पर और उदय-काल-फलदान का समय पाने पर कर्मों का शुभाशुभ फल देना उदय है। अबाधाकाल (बंधे हुए कर्मों का जब तक प्रात्मा को फल नहीं मिलता वह काल) व्यतीत हो चुकने पर भी जो कर्म-दलिक बाद में उदय में आनेवाले हैं, उनको प्रयत्न-विशेष से खींच कर उदय-प्राप्त दलिकों के साथ भोग लेना उदीरणा है। बंधे हुए कर्मों का अपने स्वरूप को न छोड़ कर आत्मा के साथ लगे रहना सत्ता है। उदय और उदीरणा में यह अन्तर है कि उदय में किसी भी प्रकार के प्रयत्न के बिना स्वाभाविक क्रम से कर्मों के फल का भोग होता है और उदीरणा में प्रयत्न करने पर ही कर्मफल का भोग होता है / प्रस्तुत में मुनि गजसुकुमाल ने जो कर्म-फल का उपभोग किया है, वह स्वाभाविक क्रम से नहीं किया, किन्तु सोमिल ब्राह्मण के प्रयत्न विशेष से कर्मों का उपभोग कराया गया है, अतः यहाँ कर्मों की उदीरणा अर्थ अपेक्षित है। सोमिल ब्राह्मण का मरण २८-तए णं से कण्हे वासुदेवे परहं अरिष्टनेमि एवं वयासी-से णं भंते ! पुरिसे मए कहं जाणियन्वे ? तए णं अरहा अरिद्वणेमी कण्हें वासुदेवं एवं क्यासी-जे णं कण्हा ! तुमं बारवईए नयरीए अणुप्पविसमाणं पासेत्ता ठियए चेव ठिइमेएणं कालं करिस्सइ, तण्णं तुमं जाणिज्जासि "एस णं से पुरिसे।" तए णं से कण्हे वासुदेवे परहं अरिट्टनेमि वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव प्राभिसेयं हत्थिरयणं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हत्थि दुरुहइ, दुहिता जेणेव बारवई नयरी जेणेव सए मिहे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं तस्स सोमिलमाहणस्स कल्लं जाव' जलते अयमेयारूवे अज्झथिए चितिए पस्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पण्णे-एवं खलु कण्हे वासुदेवे अरहं अरिहर्णेमि पायवंदए निग्गए। तं नायमेयं प्ररहया, विण्णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, सिट्ठमेयं अरहया भविस्सइ कण्हस्स वासुदेवस्स / तं न नज्जइ णं कण्हे वासुदेवे ममं केणइ कु-मारेणं मारिस्सइ ति कटु भीए तत्थे तसिए उठिवग्गे संजायभए सयाओ गिहाम्रो पडिणिक्खमइ / काहस्स वासुदेवस्स बारवई नरि अणुष्पविसमाणस्स पुरो सपक्खि सपडिदिसि हब्वमागए। ___ भगवान् अरिष्टनेमि द्वारा अपने प्रश्न का समाधान प्राप्त करके कृष्ण वासुदेव फिर भगवान् के चरणों में निवेदन करने लगे- "भगवन् ! मैं उस पुरुष को किस तरह पहचान सकता हूँ ?' प्रश्न का समाधान करते हुए भगवान अरिष्टनेमि कहने लगे—'कृष्ण! यहाँ से लौटने पर जब तुम द्वारका नगरी में प्रवेश करोगे तो उस समय एक पुरुष तुम्हें देखकर भयभीत होगा, वह वहाँ पर खड़ा-खड़ा ही गिर जाएगा। आयु की समाप्ति हो जाने से मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। उस समय तुम समझ लेना कि यह वही पुरुष है।' अरिष्टनेमि भगवान् द्वारा अपने प्रश्न का उत्तर सुनकर भगवान् अरिष्टनेमि को वंदन एवं नमस्कार करके श्रीकृष्ण ने वहाँ से प्रस्थान किया और अपने प्रधान हस्तिरत्न पर बैठकर अपने घर की ओर रवाना हुए। उधर उस सोमिल ब्राह्मण के मन में दूसरे दिन सूर्योदय होते ही इस प्रकार विचार उत्पन्न 1. देखिए तृतीय वर्ग, सूत्र 24. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org