________________ तृतीय वर्ग] [85 यह सुनकर कृष्ण वासुदेव ने पुनः प्रश्न किया-'हे पूज्य ! उस पुरुष ने गजसुकुमाल मुनि को किस प्रकार सहायता दी ?' अर्हत् अरिष्टनेमि ने कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार उत्तर दिया "कृष्ण ! मेरे चरणवंदन के हेतु शीघ्रतापूर्वक आते समय तुमने द्वारका नगरी में एक वृद्ध पुरुष को देखा [जो अति वृद्ध, जरा से जर्जरित, अति क्लान्त, कुम्हलाया हुआ, दुर्बल था, उसके घर के बाहर राजमार्ग पर पड़ी हुई एक ईंट उस वृद्ध के घर में जाकर रख दी। तुम्हें एक ईंट रखते देखकर तुम्हारे साथ के सब पुरुषों ने भी एक-एक ईंट उठा कर उस वृद्ध के घर में पहुँचा दी और ईंटों की वह विशाल राशि तत्काल राजमार्ग से उठकर उस वृद्ध के घर में चली गई। इस तरह तुम्हारे इस सत्कर्म से वृद्ध पुरुष का कष्ट दूर हो गया।] हे कृष्ण ! वस्तुतः जिस तरह तुमने उस पुरुष का दुःख दूर करने में उसकी सहायता की, उसी तरह हे कृष्ण ! उस पुरुष ने भी अनेकानेक लाखों भवों के संचित कर्मों की राशि की उदीरणा करने में संलग्न गजसुकुमाल मुनि को उन कर्मों की संपूर्ण निर्जरा करने में सहायता प्रदान की है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में भगवान् अरिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण को उन्हीं के (श्रीकृष्ण के) जीवन में घटित उदाहरण से यह समझाया कि वास्तव में गजसकुमाल मुनि के कर्मक्षय में सोमिल सहायक बना। प्राचार्य श्री आत्मारामजी महाराज ने अपने अन्तगड सूत्र की वृत्ति (पृ. 186) में सोमिल ब्राह्मण तथा मुनि गजसुकुमाल के अतीत कालीन कर्म-सम्बन्ध को लेकर परंपरागत कथा दी है एक पुरुष की दो पत्नियाँ थीं, एक को बच्चा था, एक को नहीं था / बच्चा-रहित स्त्री ने बहुतेरे उपाय किये परंतु उसे बच्चा नहीं हुआ। ईर्ष्यावश उस ने निर्णय किया कि कभी अवसर पाकर मैं सौत के बच्चे को मार डालूगी। दुर्भाग्य से बच्चे के सिर में फसिया निकलीं, अनेकों इलाज करने पर भी दर्द नहीं मिटा तब बच्चे की माँ ने सौत से उपाय पूछा और अवसर पाकर उसने पूडा पकाया और गरम-गरम पूडा बच्चे के सिर पर बाँध दिया। परिणामत: बच्चे की मृत्यु हुई / इससे वह अत्यन्त प्रसन्न हुई। हजारों जन्म-जन्मांतर की घाटियाँ पार करती हुई वही नारी एक दिन माता देवकी के घर गजसुकुमाल के रूप में पैदा हुई और वह बच्चा द्वारका नगरी में सोमिल ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न हुआ। कथाकार के अनुसार निन्यानवे लाख जन्म पहले गजसुकुमाल के जीव ने किसी समय सोमिल ब्राह्मण के जीव के सिरपर गरम-गरम पूडा बाँधकर उसे मारा था / अतः इस जन्म में सोमिल ने जलती हुई अंगीठी रखकर बदला लिया। अणेग भव"कम्म–अर्थात् अनेक शब्द एक से अधिक अर्थ का, भव शब्द जन्म का, शतसहस्र शब्द लाखों और संचित शब्द उपाजित किए हुए, अर्थ का बोधक है। कर्म उस पौद्गलिक शक्ति का नाम है जो आत्मा को संसार-अटवी में भ्रमण कराने वाली है। "उदीरेमाणेणं" अर्थात् उदीरणा करके / जैन शास्त्रों में कर्म की चार अवस्थाएं बताई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org