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________________ 84] [अन्तकृद्दशा आधारित है। आयु बांधते समय अगर परिणाम मंद हों तो आयु का बंध शिथिल पड़ेगा, अगर परिणाम तीव्र हों तो बंध तीव्र होगा। शिथिल बंधवाली आयु निमित्त मिलने पर घट जाती है--- नियत काल से पहले ही भोग ली जाती है और तीव्र बंधवाली (निकाचित) आयु निमित्त मिलने पर भी नहीं घटती है / स्थानांग सूत्र में आयुभेद के सात निमित्त बताये हैं जो इस प्रकार हैं 1. अज्झवसाण--अध्यवसान--स्नेह या भय रूप प्रबल मानसिक आघात होने पर आयु समय से पहले ही समाप्त होती है / 2. निमित्त शस्त्र, दण्ड, अग्नि आदि का निमित्त पाकर आयु शीघ्र समाप्त हो जाती है / 3. पाहार-अधिक भोजन करने से आयु घट जाती है / 4. वेदना किसी भी अंग में असह्य वेदना होने पर आयु के दलिक समय से पूर्व ही उदय में आकर आत्मा से झड़ जाते हैं। 5. पराघात–गड्ढे में गिरना, छत का ऊपर गिर जाना आदि बाह्य आघात पाकर आयु की उदीरणा हो जाती है। 6. स्पर्श-सर्प आदि जहरीले जीवों के काटने पर अथवा ऐसी वस्तु का स्पर्श होने पर जिससे शरीर में विष फैल जाए, आयु असमय में ही समाप्त हो जाती है। 7. प्राण-पाण-श्वास की गति बन्द हो जाने पर प्रायु-भेद हो जाता है। निमित्तों को पाकर जो आयु नियत काल समाप्त होने से पहले ही अन्तर्मुहूर्तमात्र में भोग ली जाती है, उस प्रायु का नाम अपवर्तनीय आयु है / इसे सोपक्रम आयु भी कहते हैं। जो उपक्रम सहित हो वह सोपक्रम है। तीव्र शस्त्र, तीव्र विष,तीव्र अग्नि आदि निमित्तों का प्राप्त होना उपक्रम है। अनपवर्तनीय आयु सोपक्रम और निरुपक्रम दोनों प्रकार की होती है। दूसरे शब्दों में इस अनपवर्तनीय प्रायु को अकालमृत्यु लानेवाले अध्यवसान आदि उक्त निमित्तों का संनिधान होता भी है और नहीं भी होता है। उक्त निमित्तों का संनिधान होने पर भी अनपवर्तनीय आयु नियतकाल से पहले पूर्ण नहीं होती। यहाँ इतना ध्यान रखना आवश्यक है कि बन्धकाल में आयकर्म के जितने दलिक बंधते हैं. उन सब का भोग तो जीव को करना ही पड़ता है, केवल वह भोग जब स्वल्प काल में हो जाता है तब वह कालिक स्थिति की अपेक्षा अकालमरण कहा जाता है। २७-कहणं भंते ! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स अणगारस्स साहिज्जे दिण्णे ? तए णं परहा अरिट्ठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी से नणं कण्हा! तुम ममं पायवंदए हव्वमागच्छमाणे बारवईए नयरीए एगं पुरिसं-जाव' जिणं जराजज्जरियदेहं प्रारं झसियं पिवासियं दुब्बलं किलंतं महइमहालयाम्रो इदगरासीनो एगमेगं इट्टगं गहाय बहिया रत्थापहाम्रो अंतोगिहं अणुप्पवेससि / तए णं तुमे एगाए इट्टगाए गहियाए समाणीए प्रणेहिं पुरिससरहिं से महालए इट्टगस्स रासी बहिया रत्थापहाम्रो अंतोधरंसि] अणुपवेसिए / जहा णं कण्हा! तुमे तस्स पुरिसस्स साहिज्जे दिग्णे, एवामेव कण्हा! तेणं पुरिसेणं गयसुकुमालस्स अणगारस्स प्रणेगभव-सयसहस्स-संचियं कम्मं उदीरेमाणेणं बहुकम्मणिज्जरत्थं साहिज्जे दिण्णे / 1. देखिए सूत्र 24. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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