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________________ तृतीय वर्ग] भगवन् ! मुनि गजसकुमाल ने अपना प्रयोजन कैसे सिद्ध कर लिया है ? महाराज कृष्ण के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए अरिष्टनेमि भगवान् कहने लगे हे कृष्ण ! वस्तुतः कल के दिन के अपराह्न काल के पूर्व भाग में गजसुकुमाल मुनि ने मुझे वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया-हे प्रभो! आपकी आज्ञा हो तो मैं महाकाल श्मशान में एक रात्रि की महाभिक्षुप्रतिमा धारण करके विचरना चाहता हूँ। यावत् मेरी अनुज्ञा प्राप्त होने पर वह गजसुकुमाल मुनि महाकाल श्मशान में जाकर भिक्ष की महाप्रतिमा धारण करके ध्यानस्थ खड़े हो गये / / इसके बाद गजसुकुमाल मुनि को एक पुरुष ने देखा और देखकर वह उन पर अत्यन्त ऋद्ध हुअा / इत्यादि समस्त पूर्वोक्त घटना सुनाकर भगवान् ने अन्त में कहा-इस प्रकार गजसुकुमाल मुनि ने अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया। २६-तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं रिट्ठनेमि एवं वयासी से के णं भंते ! से पुरिसे अपत्थियपत्थिए जाव [दुरंत-पंत-लक्खणे, होणपुण्णचाउद्दसिए, सिरि-हिरि-धिइ-किति] परिवज्जिए, जेणं ममं सहोदर कणीयस भायरं गजसुकुमालं अणगारं अकाले चेव जीवियानो ववरोवेइ, (ववरोविए) ? तए णं परहा अरिटठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयामी-- “मा णं कण्हा ! तुमं तस्स पुरिसस्स पदोसमावज्जाहि / एवं खलु कण्हा ! तेणं पुरिसेणं गयस कुमालस्स अणगारस्स साहिज्जे दिण्णे। यह सुनकर कृष्ण वासुदेव भगवान् नेमिनाथ से इस प्रकार पूछने लगे "भंते ! वह अप्रार्थनीय का प्रार्थी अर्थात् मृत्यु को चाहनेवाला, [दुरन्त प्रान्त लक्षण वाला, पुण्यहीन चतुर्दशी को उत्पन्न, लज्जा और लक्ष्मी से रहित] निर्लज्ज पुरुष कौन है जिसने मेरे सहोदर लघु भ्राता गजसुकुमाल मुनि का असमय में ही प्राण-हरण कर लिया ?" तब अर्हत् अरिष्टनेमि कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार वोले "हे कृष्ण ! तुम उस पुरुष पर द्वष-रोष मत करो, क्योंकि उस पुरुष ने सुनिश्चित रूपेण गजसुकुमाल मुनि को अपना आत्म-कार्य--अपना प्रयोजन सिद्ध करने में सहायता प्रदान की है।" विवेचन–'अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेइ' यहां 'ववरोविए' पाठ अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है / अस्तु, इन पदों का अर्थ है—अकाल में ही जीवन से रहित कर दिया। अकाल मृत्यु शब्द असमय की मृत्यु के लिये प्रयुक्त होता है। जो मृत्यु समय पर हो, व्यावहारिक दृष्टि में अपना समय पूर्ण कर लेने पर हो, उसे अकाल मृत्यु नहीं कहते, वह कालमृत्यु है। जैन शास्त्रों में आयु के दो प्रकार हैं-एक अपवर्तनीय और दूसरी अनपवर्तनीय / जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले ही विष शस्त्र आदि का निमित्त मिलने पर शीघ्र भोगी जा सके वह अपवर्तनीय प्रायु है, और जो बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले न भोगी जा सके वह अनपवर्तनीय आयु है / इस अायुद्वय का बन्ध स्वाभाविक नहीं है, परिणामों के तारतम्य पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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