________________ 82] [ अन्तकृद्दशा तब कृष्ण वासुदेव ने द्वारका नगरी के मध्य भाग से जाते समय एक पुरुष को देखा, जो अति वृद्ध, जरा से जर्जरित [अति क्लान्त, कुम्हलाया हुअा दुर्बल | एवं थका हुआ था। वह बहुत दुःखी था। उसके घर के बाहर राजमार्ग पर ईंटों का एक विशाल ढेर पड़ा था जिसे वह वृद्ध एक-एक ईंट करके अपने घर में स्थानान्तरित कर रहा था। तब उन कृष्ण वासुदेव ने उस पुरुष की अनुकंपा के लिये हाथी पर बैठे हए ही एक ईंट उठाई, उठाकर बाहर रास्ते से घर के भीतर पहुंचा दी। तब कृष्ण वासुदेव के द्वारा एक ईट उठाने पर (उनके अनुयायी) अनेक सैंकड़ों पुरुषों द्वारा वह बहुत बड़ा ईंटों का ढेर बाहर गली में से घर के भीतर पहुंचा दिया गया / मयसुकुमाल को सिद्धि की सूचना २५–तए णं से कण्हे वासुदेवे बारवईए नयरीए मज्झमझेगं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव अरहा परिट्ठनेमी तेणेव उवागए, उवागच्छित्ता जाव [अरहं अरिट्टनेमि तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता] वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी ___ “कहि णं भंते ! से ममं सहोदर कणीयसे भाया गयसुकुमाले अणगारे जणं अहं वदामि नमंसामि ? तए णं अरहा अरिट्ठनेमी कण्हं वासुदेवं एवं वयासी "साहिए णं कण्हा ! गयसुकुमालेणं अणगारेणं अपणो अद्वै।" तए णं से कण्हे वासुदेवे अरहं अरिट्टनेमि एवं वयासी-“कहण्णं भंते ! गयसुकुमालेणं अणगारणं साहिए अप्पणो अट्ठ ?" तए णं अरहा अरिटुनेमी कण्हं वासुदेवं एवं क्यासी--एवं खलु कण्हा गयसुकुमाले णं अणगार ममं कल्लं पुवावरण्हकालसमयंसि बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'इच्छामि गं जाव' उवसंपज्जित्ता गं विहरई'।" तए णं तं गयसकुमालं अणगार एगे पुरिसे पासइ, पासित्ता प्रासुरुत्ते जाव' सिद्ध / तं एवं खलु कण्हा ! गयसुकुमालेणं अणगारणं साहिए अप्पणो अठे। वृद्ध पुरुष की सहायता करने के अनन्तर कृष्ण वासुदेव द्वारका नगरी के मध्य में से होते हुए जहाँ भगवन्त अरिष्टनेमि विराजमान थे वहां आ गए / कृष्ण ने दाहिनी ओर से प्रारंभ करके तीन बार भगवान् की प्रदक्षिणा-परिक्रमा की, वंदन-नमस्कार किया। इसके पश्चात् गजसुकुमाल मुनि को वहाँ न देखकर उन्होंने अरिहंत अरिष्टनेमि से वंदन-नमस्कार करने के बाद पूछा--"भगवन् ! मेरे सहोदर लघुभ्राता मुनि गजसुकुमाल कहां हैं ? मैं उनको वन्दना-नमस्कार करना चाहता हूँ।" ___ महाराज कृष्ण के इस प्रश्न का समाधान करते हुए अरिहंत अरिष्टनेमि ने कहाकृष्ण ! मुनि गजसुकुमाल ने मोक्ष प्राप्त करने का अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया है। अरिष्टनेमि भगवान् से अपने प्रश्न का उत्तर सुन कर कृष्ण वासुदेव अरिष्टनेमि भगवान् के चरणों में पुनः निवेदन करने लगे१. वर्ग 3, सूत्र 21. 2. देखिए-सूत्र 22. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org