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________________ [81 तृतीय वर्ग] सिद्ध-बुद्ध आदि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है-१. सिद्ध-जो कृतकृत्य हो गये हैं, जिनके समस्त कार्य सिद्ध-पूर्ण हो चुके हैं / 2. बुद्ध-जो लोक अलोक के सर्व पदार्थों के ज्ञाता हैं / 3. मुक्तजो समस्त कर्मों से रहित हो चुके हैं। 4. परिनिर्वात-समस्त कर्म-जनित विकारों के नष्ट हो जाने से जो शान्त हैं। 5. सर्वदुःख-प्रहीण-जिनके समस्त शारीरिक तथा मानसिक दुःख नष्ट हो चुके हैं। वासुदेव कृष्ण द्वारा वृद्ध को सहायता २४–तए णं से कण्हे वासुदेवे कल्लं पाउपभायाए रयणोए जाव [फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि, प्रहपंडुरे पभाए,रत्तासोगपगास-किसुय-सुयमूह-गुजराग-बंधुजोवग-पारावयचलण-नयणपरहुयसुरत्तलोयण-जासुमिणकुसुम-जलियजलण-तवणिज्जकलस-हिंगुलयनियर-रूवाइरेगरेहन्तसस्सिरीए दिवागरे अहक्कमेण उदिए, तस्स दिणकर-परंपरावयारपारद्धम्मि अंधयारे, बालातवकुंकुमेणं खइए व जीवलोए, लोयणविसप्राणुप्रासविगतविसददंसियम्मि लोए, कमलागरसडबोहए उठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयर तेयसा जलते] हाए जाव' विभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामरहिं उद्धवमाणीहि महयाभड-चडगर-पहकरवंद-परिक्खित्ते बारवई नार मज्झमझेणं जेणेव अरहा अरिठ्ठनेमी तेणेव पहारेत्थ गमणाए। ___ तए णं से कण्हे वासुदेवे बारवईए नयरोए मज्झमझेणं निग्गच्छमाणे एक्कं पुरिसं-जुण्णं जरा-जज्जरिय-देहं जाव [प्राउर भूसियं पिवासियं दुग्बलं] किलंतं महइमहालयाप्रो इट्टगरासीमो एगमेगं इट्टगं गहाय बहिया रत्थापहाम्रो अंतोगिहं प्रणुप्पविसमाणं पासइ। तए णं से कण्हे वास देवे तस्स पुरिसस्स प्रणुकंपणट्ठाए हथिखंववरगए चेव एग इट्टगं गेण्हइ, गेण्हित्ता बहिया रत्थापहायो अंतोघरंसि अणुप्पवेसिए / तए णं कण्हेणं वासुदेवेणं एमाए इट्टगाए गहियाए समाणीए प्रणेगेहि पुरिसेहिं से महालए इट्टगस्स रासी बहिया रत्थापहाओ अंतोघरंसि प्रणुप्पवेसिए। तदनन्तर कृष्ण वासुदेव दूसरे दिन प्रातःकाल सूर्योदय होने पर [जब प्रफुल्लित कमलों के पत्त विकसित हुए, काले मृग के नेत्र निद्रारहित होने से विकस्वर हुए। फिर वह प्रभात पाण्डुर-श्वेत वर्ण वाला हुआ। लाल अशोक की कान्ति, पलाश के पुष्प, तोते की चोंच, चिरमी के अर्द्ध भाग, दुपहरी के पुष्प, कबूतर के पैर और नेत्र, जासोद के फूल, जाज्वल्यमान अग्नि, स्वर्णकलश तथा हिंगल के समूह की लालिमा से भी अधिक लालिमा से जिसकी श्री सुशोभित हो रही है, ऐसा सूर्य क्रमशः उदित हुआ। सूर्य की किरणों का समूह नीचे उतर कर अंधकार का विनाश करने लगा। बाल-सूर्य से मानो जीवलोक व्याप्त हो गया। नेत्रों के विषय का प्रचार होने से विकसित होने वाला लोक स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगा। सरोवरों में स्थित कमलों के वन को विकसित करने वाला तथा सहस्र किरणों वाला दिवाकर तेज से जाज्वल्यमान हो गया। ऐसा होने पर] कृष्ण वासुदेव स्नान कर वस्त्रालंकारों से विभूषित हो, हाथी पर आरूढ हुए। कोरंट पुष्पों की माला वाला छत्र धारण किया हुअा था / श्वेत एवं उज्ज्वल चामर उनके दायें-बायें ढोरे जारहे थे। वे जहाँ भगवान् अरिष्टनेमि विराजमान थे, वहाँ के लिये रवाना हुए। 1. देखिए---तृतीय वर्ग का तेरहवां सूत्र / पहपा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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