________________ 80] [अन्तकृद्दशा गजसुकुमाल मुनि ने श्रमणधर्म की अत्यन्त उत्कृष्ट पाराधना की है" यह जान कर अपनी वैक्रिय शक्ति के द्वारा दिव्य सुगन्धित अचित्त जल की तथा पांच वर्गों के दिव्य अचित्त फूलों एवं वस्त्रों की वर्षा की और दिव्य मधुर गीतों तथा गन्धर्ववाद्ययन्त्रों की ध्वनि से आकाश को गुजा दिया। विवेचन–परम आत्मस्थ, आत्म-समाधि में लीन मुनि गजसुकुमाल ने सोमिल-ब्राह्मण द्वारा की गई यह भीषणातिभीषण हृदयविदारक महावेदना पूर्ण समभावपूर्वक निष भाव से सहन की। परिणामतः केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर वे मोक्ष में पधार गये। मोक्ष-प्राप्ति में परमसहयोगी रूप (1) शुभ परिणाम और (2) प्रशस्त अध्यवसाय इन दो पदों का "सुभेण परिणामेणं पसत्थज्झवसाणेणं" शब्दों से सूत्र में उल्लेख किया है। दोनों का अर्थविभेद इस प्रकार-१. सामान्य रूप से शुभ निष्पाप विचारों को शुभ परिणाम कहते हैं / 2. विशेष रूप से आत्म-समाधि में लग जाने या गंभीर आत्मचिन्तन में संलग्न होने की दशा को प्रशस्त अध्यवसाय कहा "तदावरणिज्जाणं कम्माणं'-इस पद में कर्म विशेष्य है और 'तदावरणीय' यह उसका विशेषण है। कर्म शब्द आत्मप्रदेशों से मिले कर्माणुओं का बोधक है और ज्ञान-दर्शन आदि यात्मिक गुणों को ढंकनेवाले, इस अर्थ का सूचक तदावरणीय शब्द है। "कम्मरयविकिरणकरं'-कर्म-रजोविकिरण-करं अर्थात् ज्ञानावरणीय आदि कर्म रूप रज-मल का विकिरण नाश करनेवाले को कमर्रजोविकिरण-कर कहते हैं। "अपुवकरणं-अपूर्वकरणम्, आत्मनोऽभूतपूर्वं शुभपरिणामम् अर्थात्--अपूर्णकरण शब्द जिसकी पहले प्राप्ति नहीं हुई-इस अर्थ का बोधक है। यह आठवें "निवृत्तिबादर गुणस्थान" का भी परिचायक माना गया है। इस गुणस्थान से दो श्रेणियां आरंभ होती हैं। उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी–उपशम श्रेणीवाला जीव मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम करता हुआ ग्यारहवें गुणस्थान तक जाकर रुक जाता है और नीचे गिर जाता है / क्षपक श्रेणी वाला जीव दशवें गुणस्थान से सीधा बारहवें गुणस्थान पर जाकर अप्रतिपाती हो जाता है। आठवें गुणस्थान में प्रारूढ हुया जीव क्षपक श्रेणी से उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ जब बारहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है तब समस्त धाती कर्मों का क्षय करता हुअा कैवल्य प्राप्त कर लेता है। तत्पश्चात् तेरहवें गुणस्थान में स्थिर होता है। आयु पूर्ण होने पर चौदहवां गुणस्थान प्राप्त करके परम कल्याण रूप मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है। प्रस्तुत में सूत्रकार ने “अपुवकरणं" पद देकर गजसुकुमाल के साथ अपूर्वकरण अवस्था का सम्बन्ध सूचित किया है। भाव यह है कि गजसुकुमाल मुनि ने आठवें गुणस्थान में प्रविष्ट होकर क्षपक श्रेणी को अपना लिया था। अणते "दसणे अादि पदों की व्याख्या इस प्रकार है-१. अनंत अंत रहित, जिसका कभी अन्त न हो, जो सदा काल बना रहे / 2. अनुत्तर-प्रधान-जिससे बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं है, सबसे ऊँचा। 3. निर्व्याघात-व्याघात–रुकावट रहित / 4. निरावरण—जिस पर कोई प्रावरणपर्दा नहीं है, चारों ओर से ज्ञान-प्रकाश की वर्षा करने वाला। 5. कृत्स्न-संपूर्ण, जो अपूर्ण नहीं है। 6. प्रतिपूर्ण-संसार के सब ज्ञेय पदार्थों को अपना विषय बनानेवाला, जिससे संसार का कोई पदार्थ अोझल नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org