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________________ [76 तृतीय वर्ग] विवेचन—गजसुकुमाल के उग्र वैराग्य से अनभिज्ञ होने से तथा अपनी पुत्री के साथ विवाह नहीं करने के कारण क्रोध में अंधा हो कर सोमिल, ध्यानस्थ गजसुकुमाल मुनि के प्रति अत्यन्त क्रूर एवं नृशंस व्यवहार करता है / प्रस्तुत सूत्र में उसके पैशाचिक कृत्य का हृदयविदारक वर्णन प्रस्तुत किया गया है। 'सामिधेयस्स' की व्याख्या करते हुए टीकाकार प्राचार्य अभयदेव सूरि कहते हैं "सामिधेयस्सत्ति- "समित्समूहस्य' / " यहाँ समित् का अर्थ है हवन में जलाई जाने वाली लकड़ी। आगे 'दब्भे कुसे पत्तामोड़े' शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनका टीका में इस प्रकार अर्थ किया है 'समिहाउत्ति' इन्धनभूता काष्ठिकाः, 'दब्भेत्ति' समूलान् दर्भान्, 'कुसेत्ति' द ग्राणीति, पत्तामोडयं ति शाखिशाखा-शिखामोटितपत्राणि देवतार्चनार्थानीत्यर्थ:-अर्थात्-समिधा इन्धनभूत लकड़ी को, मूलसहित डाभ-जड़ों वाली घास को दर्भ, डाभ के अग्रभाग को कुशा तथा देवपूजन के लिये वृक्षों की शाखाओं के अग्रभाग से मुड़े हुए पत्तों को पत्रामोटित कहते हैं / सोमिल ब्राह्मण द्वारा की जाने वाली इस कल्पनातीत असह्य महावेदना के बाद भी मुनि गजसुकुमाल की क्या स्थिति रही, इसका हृदय-स्पर्शी वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैंगजसुकुमाल मुनि की सिद्धि , २३-तए णं तस्स गयसुकमालस्स अणगारस्स सरीरथंसि बेयणा पाउन्भूया-उज्जला जाव [विउला कक्खडा पगाढा चंडा रुद्दा दुक्खा] दुरहियासा। तए णं से गयसुकुमाले अणगारे सोमिलस्स माहणस्म मणसा वि अप्पदुस्समाणे तं उज्जलं जाव [विउलं कक्खडं पगाढं चंडं रुदं दुक्खं दुरहियासं वेयणं] अहियासेइ / तए णं तस्स गयसुकुमालस्स अणगारस्स तं उज्जलं जाव अहियासेमाणस्स सुभेणं परिणामणं, पसत्थझवसाणेणं, तदावरणिज्जाणं कम्माणं खएणं कम्मरयविकिरणकर अपुवकरणं अणुप्पविट्ठस्स अणते अणुत्तरे जाव [निवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे] केवलवरणाणदंसणे समुप्पण्णे / तमो पच्छा सिद्ध जाव [बुद्ध मुत्ते अंतयडे परिनिव्वुए सव्वदुक्ख ]प्पहीणे। तत्थ णं अहासंनिहिएहि देवेहि सम्मं पाराहिए त्ति कटु दिव्वे सुरभिगंधोदए वुटु; दसद्धवणे कुसुमे निवाडिए; चेलुक्खेवे कए; दिव्वे य गोयगंधव्वणिणाए कए यावि होत्था / सिर पर उन जाज्वल्यमान अंगारों के रखे जाने से गजसुकुमाल मुनि के शरीर में महा भयंकर वेदना उत्पन्न हुई जो अत्यन्त दाहक, दुःखपूर्ण [अत्यधिक हृदयविदारक, अत्यधिक भयंकर, उग्र, तीव्र, भीषण और दुस्सह] थी। इतना होने पर भी गजसुकुमाल मुनि सोमिल ब्राह्मण पर मन से भी, लेश मात्र भी द्वष नहीं करते हुए उस एकान्त दुःखरूप [हृदय-विदारक, भयंकर, उग्र, तीव भीषण, दुस्सह वेदना को समभावपूर्वक सहन करने लगे। उस समय उस एकान्त दुःखपूर्ण दुःसह दाहक वेदना को समभाव से सहन करते हुए शुभ परिणामों तथा प्रशस्त शुभ अध्यवसायों (भावनाओं) के फलस्वरूप प्रात्मगुणों को आच्छादित करनेवाले कर्मों के क्षय से समस्त कर्म-रज को झाड़कर साफ कर देने वाले, कर्म-विनाशक अपूर्ण-करण में प्रविष्ट हुए / उन गजसुकुमाल अनगार को अनंत-अंतरहित अनुत्तर-सर्वश्रेष्ठ [निर्व्याघात निरावरण संपूर्ण एवं परिपूर्ण] केवलज्ञान एवं केवलदर्शन की उपलब्धि हुई। तत्पश्चात् आयुष्यपूर्ण हो जाने पर वे सिद्ध-कृतकृत्य, बुिद्ध-सकलपदार्थों के ज्ञाता, मुक्त-सका कर्मों] और सर्व प्रकार के दुःखों से रहित हो गये। उस समय वहाँ समीपवर्ती देवों ने "अहो ! इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003476
Book TitleAgam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages249
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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