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________________ द्वितीय स्थान–प्रथम उद्देश ] [ 31 __ऊपर दिये गये स्थानाङ्ग और तत्त्वार्थसूत्र सम्बन्धी क्रियानों के नामों में अधिकांशतः समानता होने पर भी किसी-किसी क्रिया के अर्थ में भेद पाया जाता है। किसी-किसी क्रिया के प्राकृत नामका संस्कृत रूपान्तर भी भिन्न पाया जाता है। जैसे—'दिठिया' क्रिया के अभयदेव सुरि ने 'दृष्टिजा' और 'दृष्टिका' ये संस्कृत रूप बता कर उनके अर्थ में कुछ अन्तर किया है / इसी प्रकार 'पुट्ठिया' इस प्राकृत नामका 'पृष्टि जा, पृष्टिका, स्पृष्टिजा और स्पृष्टिका' ये चार संस्कृत रूप बताकर उनके अर्थ में कुछ विभिन्नता बतायी है। पर हमने तत्त्वार्थसूत्रगत पाठ को सामने रख कर उनका अर्थ किया है जो स्थानाङ्गटीका से भी असंगत नहीं है। वहाँ पर 'दिट्ठिया' के स्थान पर 'दर्शन क्रिया' और 'पूटिठया' के स्थान पर 'स्पर्शन क्रिया' का नामोल्लेख है। सामन्तोपनिपातिकी क्रिया का अर्थ स्थानाङ्ग की टीका में, तथा तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में बिलकुल भिन्न-भिन्न पाया जाता है। स्थानाङ्कटीका के अनुसार इसका अर्थ-जन-समुदाय के मिलन से होने वाली क्रिया है और तत्त्वार्थसूत्र की टीकात्रों के अनुसार इसका अर्थ-पुरुष, स्त्री और पशु आदि से व्याप्त स्थान में मल-मूलादि का त्याग करना है। हरिभद्रसूरि ने इसका अर्थस्थण्डिल आदि में भक्त आदि का विसर्जन करना किया है / स्थानाङ्गसूत्र का 'णेसत्थिया' प्राकृत पाठ मान कर संस्कृत रूप 'नैसृष्टिको' दिया और तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों ने 'णेस ग्गिया' पाठ मानकर 'निसर्ग क्रिया' यह संस्कृत रूप दिया है। पर वस्तुतः दोनों के अर्थ में कोई भेद नहीं है / प्राकृत 'प्राणवणिया' का संस्कृत रूप 'आज्ञापनिका' मानकर आज्ञा देना और 'पानयनिका' मानकर 'मंगवाना' ऐसे दो अर्थ किये हैं। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों ने 'आज्ञाव्यापादिका' संस्कृत रूप मान कर उसका अर्थ--'शास्त्रीय प्राज्ञा का अन्यथा निरूपण करना' किया है। इसी प्रकार कुछ और भी क्रियाओं के अर्थों में कुछ न कुछ भेद दृष्टिगोचर होता है, जिससे ज्ञात होता है कि क्रियाओं के मूल प्राकृत नामों के दो पाठ रहे हैं और तदनुसार उनके अर्थ भी भिन्नभिन्न किये गये हैं। जिनमें से एक परम्परा स्थानाङ्ग सूत्र के व्याख्याकारों की और दूसरी परम्परा तत्त्वार्थसूत्र से टीकाकारों की ज्ञात होती है। विशेष जिज्ञासुत्रों को दोनों की टीकाओं का अवलोकन करना चाहिए। गर्हा-पद ३८-दुविहा गरिहा पण्णता, त जहा-मणसा वेगे गरहति, वयसा वेगे गरहति / अहवा-- गरहा दुविहा पण्णत्ता, त जहा --दोहं वेगे अद्ध गरहति, रहस्सं वेगे अद्ध गरहति / ___गर्दा दो प्रकार की कही गई है- कुछ लोग मन से गहरे (अपने पाप की निन्दा) करते हैं (वचन से नहीं) और कुछ लोग वचन से गर्दा करते हैं (मन से नहीं)। अथवा इस सूत्र का यह प्राशय भी निकलता है कि कोई न केवल मन से अपितु वचन से भी गर्दी करते हैं और कोई न केवल वचन से किन्तु मन से भी गर्दा करते हैं। गहरे दो प्रकार को कही गई है-कुछ लोग दीर्घकाल तक गहरे करते हैं और कुछ लोग अल्प काल तक गर्दा करते हैं (38) / प्रत्याल्यान-पद ३६-दुविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, त जहा–मणसा वेगे पच्चक्खाति, वयसा वेगे पच्चवखाति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003471
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages827
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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