________________ 30 / / स्थानाङ्गसूत्र 16 अाज्ञापनिका क्रिया 16 आज्ञाव्यापादिका क्रिया 20 वैदारिणी क्रिया 18 विदारण क्रिया 21 अनवकांक्षाप्रत्यया क्रिया 20 अनाकांक्षा क्रिया 22 अनाभोगप्रत्यया क्रिया 15 अनाभोग क्रिया 23 प्रयःप्रत्यया क्रिया 4 समादान क्रिया 24 द्वेषप्रत्यया क्रिया 3 प्रयोग क्रिया 25 x x x 5 ईर्यापथ क्रिया तत्वार्थसूत्रगत क्रियाओं के आगे जो अंक दिये गये हैं वे उसके भाष्य और सर्वार्थसिद्धि के पाठ के अनुसार जानना चाहिए। तत्वार्थसुत्रगत पाठ के अन्त में दी गई ई-पथ क्रिया का नाम जैन विश्वभारती के उक्त संस्करण की तालिका में नहीं है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि यत कि यतः अजीव क्रिया के दो भेद स्थानाडसत्र में कहे गये हैं-साम्परायिक क्रिया और ईर्यापथ क्रिया। अतः उन्हें जीव क्रियाओं में गिनाना उचित न समझा गया हो और इसी कारण साम्परायिक क्रिया को भी उस में नहीं गिनाया गया हो? पर तत्वार्थसूत्र के भाष्य और अन्य सर्वार्थसिद्धि प्रादि टीकाओं में उसे क्यों नहीं गिनाया गया है ? यह प्रश्न फिर भी उपस्थित होता है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र के अध्येताओं से यह अविदित नहीं है कि वहाँ पर आस्रव के मूल में उक्त दो भेद किये गये हैं। उनमें से साम्परायिक के 36 भेदों में 25 क्रियाएँ परिगणित हैं। सम्पराय नाम कषाय का है। तथा कषाय के 4 भेद भी उक्त 36 क्रियाओं में परिगणित हैं। ऐसी स्थिति में 'साम्परायिक प्रास्रव' की क्या विशेषता रह जाती है ? इसका उत्तर यह है कि कषायों के 4 भेदों में क्रोध, मान, माया और लोभ ही गिने गये हैं और प्रत्येक कषाय के उदय में तदनुसार कर्मों का पास्रव होता है। किन्तु साम्परायिक आस्रव का क्षेत्र विस्तृत है। उसमें कषायों के सिवाय हास्यादि नोकषाय, पाँचों इन्द्रियों की विषयप्रवृत्ति और हिंसादि पांचों पापों की परिणतियाँ भी अन्तर्गत हैं। यही कारण है कि साम्परायिक प्रास्रव के भेदों में साम्परायिक क्रिया को नहीं गिनाया गया है। ईर्यापथ क्रिया के विषय में कुछ स्पष्टीकरण आवश्यक है / प्रश्न-तत्त्वार्थसूत्र में सकषाय जीवों की साम्परायिक प्रास्रव और अकषाय जीवों को ईपिथ प्रास्रव बताया गया है फिर भी ईर्यापथ क्रिया को साम्परायिक-प्रास्रव के भेदों में क्यों परिगणित किया गया? उत्तर-ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में अकषाय जीवों को होने वाला प्रास्रव ईर्यापथ क्रिया से विवक्षित नहीं है। किन्तु गमनागमन रूप क्रिया से होने वाला आस्रव ईर्यापथ क्रिया से अभीष्ट है / गमनागमन रूप चर्या में सावधानी रखने को ईर्यासमिति कहते हैं / यह चलने रूप क्रिया है ही / अतः इसे साम्परायिक आस्रव के भेदों में गिना गया है। कषाय-रहित वीतरागी ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के योग का सद्भाव पाये जाने से होने वाले क्षणिक सातावेदनीय के प्रास्रव को ईर्यापथ आस्रव कहते हैं / उसकी साम्परायिक प्रास्रव में परिणना नहीं की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org